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मुग़ल साम्राज्य का पतन एवं यूरोपीय कंपनियों का आगमन (Decline of Mughal Empire and Advent of European Company)

यूरोप से समुद्री मार्ग द्वारा भारत आने वाले सर्वप्रथम पुर्तगाली ही थे। अफ्रीका के केप-ऑफ-गुड हॉप अंतरीप का चक्कर काटते हुए पुर्तगाली नाविक...Read More

भारत में यूरोपीय कंपनियों के आगमन का एक मुख्य कारण मुग़लों द्वारा सामुद्रिक मार्ग की उपेक्षा भी था। यूरोपीय, भारत के साथ सीधा व्यापारिक संबंध स्थापित करना चाहते थे। भारत के पश्चिमी तट पर अरबों का आधिपत्य था। 

अरब व्यापारी भारत और यूरोप के बीच मध्यस्थ व्यापारी के रूप में थे जो कि दोनों ही पक्षों से इसका पूरा लाभ लेते थे। अतः यूरोपीय कंपनियों का स्वयं भारत आगमन के प्रमुख कारणों में से एक कारण अरबों के व्यापारिक प्रभुत्व को समाप्त करना भी था। 

भारत में सबसे पहले वर्ष 1498 में पुर्तगालियों का आगमन हुआ। इस लेख में हम उत्तर मुग़ल काल एवं युरोपियन कंपनी के क्रमबद्ध आगमन एवं विस्थापन के विषय में जानेंगे।


मुग़ल साम्राज्य का पतन एवं यूरोपीय कंपनियों का आगमन

मुग़ल सम्राटों की सूची
(List of Mughal Emperors)

संख्या शासक शासन काल
1 बाबर 1526-1530
2 हुमायूं 1530-1540, 1555-1556
3 अकबर 1556-1605
4 जहांगीर 1605-1627
5 शाहजहां 1628-1658
6 औरंगजेब 1658-1707
7 बहादुर शाह (प्रथम) 1707-1712
8 जहांदार शाह 1712-1713
9 फर्रुख्शियार 1713-1719
10 रफी उल-दर्जत 1719
11 रफी उल दौलत (शाहजहाँ द्वितीय) 1719
12 मोहम्मद शाह 1719-1720, 1720-1748
13 अहमद शाह बहादुर 1748-1754
14 अज़ीज़ुद्दीन (आलमगीर द्वितीय) 1754-1759
15 शाहजहां (तृतीय) 1759-1760
16 शाह आलम (द्वितीय) 1760-1806
17 अकबर शाह (द्वितीय) 1806-1837
18 बहादुर शाह ज़फ़र (द्वितीय) 1837-1857


बहादुर शाह प्रथम

वर्ष 1707 में औरंगजेब के मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र क़ुतुबुद्दीन मुहम्मद मुआज्ज़म (बहादुर शाह प्रथम) दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ। बहादुर शाह प्रथम को शाह-ए-बेखबर (खफी खां द्वारा) का संज्ञा दिया गया है। वर्ष 1712 में बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु हो गयी जिसके उपरांत उसका पुत्र जहांदार शाह शासक बना।

जहांदार शाह

वर्ष 1712 में बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु के उपरांत उनके चार पुत्रों मुईजुद्दीन जहांदार शाह, अजीम-उश-शान, रफी-उश-शान तथा जहाँ शाह के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ, जिसमे ज़ुल्फिकार खान की सहायता से जहांदार शाह विजयी हुए और मुग़ल सम्राट बने। 

सिंहासन पर बैठते समय उनकी उम्र 51 वर्ष थी। इतिहासकार 'इरादत खां' ने इन्हे लम्पट मुर्ख की संज्ञा दी है। जहांदार शाह का शासन काल मार्च 1712 से फरवरी 1713 तक था। 1713 में ही जहांदार शाह के भतीजे फ़र्रुख़सियर ने सैय्यद बंधुओं की सहायता से इसकी हत्या कर दी और स्वयं गद्दी पर बैठा।

अकबर द्वितीय (मिर्ज़ा अकबर या अकबर शाह सानी)

अकबर द्वितीय का जन्म 1760 ईसवी में हुआ था। इनका शासन काल 19 नवम्बर 1806 से 28 सितम्बर 1837 तक था। अकबर द्वितीय शाह आलम द्वितीय के पुत्र थे। 

औरंगजेब की मृत्यु के बाद से ही मुग़ल साम्राज्य के पतन का दौर शुरू हो गया था। समय के साथ-साथ मुग़ल बादशाह अंग्रेजों के पेंशनर बनकर रह गए जो कि अब सिर्फ नाम के ही बादशाह रह गए थे, अकबर द्वितीय उन्ही पेंशनर मुग़ल शासकों में से एक थे। 

मुग़ल सम्राट अकबर द्वितीय ने अपने पेंशन को बढ़ाने के निवेदन हेतु 1830 ईसवी में राजा राम मोहन राय को अपने दूत के रूप में ब्रिटिश सम्राट विलियम चतुर्थ के दरबार में लंदन भेजा था। अकबर द्वितीय ने ही राम मोहन राय को राजा की उपाधि दी थी।

बहादुर शाह जफ़र (बहादुर शाह द्वितीय)

अकबर द्वितीय के जैसे ही बहादुर शाह जफ़र भी बिना साम्राज्य के सम्राट थे। 'हसन अस्करी' बहादुर शाह ज़फ़र के आध्यात्मिक निर्देशक थे वही इब्राहीम जौक एवं असद उल्लाह ख़ान गालिब इनके दरबारी कवि थे। 

बहादुर शाह ज़फ़र अंतिम मुगल सम्राट थे। वर्ष 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के बाद ब्रिटिश सरकार द्वारा इन्हे अपदस्थ करके बर्मा में निर्वासित कर दिया गया। 

बहादुर शाह जफर को ब्रिटिश सरकार से एक लाख रुपये पेंशन और 1200 रुपये प्रतिमाह पारिवारिक व्यय के अतिरिक्त संपत्तियों के किराये के रूप में 15 लाख रुपया प्रतिमाह प्राप्त होता था। 

बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि असद उल्लाह ख़ान गालिब (मिर्जा गालिब) उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर थे। मिर्जा गालिब का मूल निवास आगरा था। गालिब का अधिकांश गद्य तथा पद्य फारसी भाषा में है। 'दीवान-ए-गालिब' इनकी प्रसिद्ध कृति है।

पुर्तगालियों का आगमन
(Advent of the Portuguese)

यूरोप से समुद्री मार्ग द्वारा भारत आने वाले सर्वप्रथम पुर्तगाली ही थे। अफ्रीका के केप-ऑफ-गुड हॉप अंतरीप का चक्कर काटते हुए पुर्तगाली नाविक वास्को-डी-गामा गुजरात के व्यापारी अहमद इब्न मजीद से मिला, जिसकी सहायता से 20 मई 1498 ईसवी को वह केरल के कालीकट पहुचा। कालीकट के राजा जेमोरिन ने उसका स्वागत किया और उसे मसाले तथा जड़ी-बूटियाँ ले जाने की आज्ञा प्रदान की। 

वास्को-डी-गामा ने भारत से प्राप्त मसालों को यूरोप में बेचकर अपने यात्रा खर्च से 60 गुना ज्यादा कमाई की। वास्को-डी-गामा जिस जहाजों को भारत लेकर आया था उनका नाम सैन गैब्रिएल, साओ राफाएल और बेरियो था। वास्को-डी-गामा के बाद 1500 ईसवी में भारत पहुचने वाला दूसरा पुर्तगाली 'पेड्रो अल्बारेज केब्राल' था, इसके बाद 1502 ईसवी में वास्को-डी-गामा पुनः भारत आया। 

पुर्तगालियों ने अपनी पहली फैक्ट्री 1503 ईसवी में कोचीन में स्थापित की, बाद में इसे हुगली स्थानांतरित किया था। 1505 ईसवी में इन्होंने अपनी दूसरी फैक्ट्री कन्नूर में स्थापित किया। इन दोनों फैक्ट्रियों को स्थापित करने के साथ-साथ 1510 ईसवी में पुर्तगाली गवर्नर अल्फाँसो डी अल्बुकर्क ने आदिल शाहियों से गोवा छिन लिया। 

गोवा के साथ-साथ पुर्तगालियों ने दमन पर भी कब्जा कर लिया तथा दोनों ही स्थानों पर व्यापारिक केंद्र स्थापित किए। पुर्तगालियों ने बंगाल की खाड़ी में समुद्री लूट-पाट के लिए हुगली को अपना अड्डा बनाया था, 1631-32 ईसवी में शाहजहाँ के समय बंगाल के मुग़ल गवर्नर कासिम खाँ ने इनका दमन किया। 

भारत सरकार ने वर्ष 1961 में गोवा को पुर्तगालियों से आजाद करवाया। वर्ष 1961 में गोवा के आजादी के समय अंतिम पुर्तगाली गवर्नर 'मैनुएल एंटोनिओ वस्सालो ए सिल्वा' था। 

पुर्तगाली गवर्नरों की सूची एवं विवरण

पुर्तगाली गवर्नर विवरण
फ्रैन्सिस्को डी अल्मीडा (1505-09) अल्मीडा प्रथम पुर्तगाली गवर्नर बनकर भारत आया। इसी के समय कोचीन, कुन्नूर और अंजादीव में पुर्तगालियों ने किले का निर्माण किया। इसने ब्लू वाटर पॉलिसी (हिन्द महासागर में पुर्तगाली प्रभुत्व) अपनाई।
अल्फाँसो डी अल्बुकर्क (1509-15) इसे पुर्तगालियों का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। 1510 ईसवी में इसी ने बीजापुर के शासक यूसुफ आदिलशाह से गोवा छिना था। इसने मलक्का एवं हरमुज (फारस की खाड़ी के मुहाने पर स्थित) पर अधिकार कर लिया था।
नीना डी कुन्हा(1529-38) नीना डी कुन्हा ने ही पुर्तगाली कंपनी की राजधानी कोचीन से गोवा स्थानांतरित किया था। 1534 ईसवी में इसने बसीन और दीव को गुजरात के शासक बहादुरशाह से प्राप्त किया।
अल्फाँसो डीसूजा (1942-45) पुर्तगाली गवर्नर अल्फांसो डिसूजा के साथ प्रसिद्ध जेसुइट संत फ्रांसिस्को जेवियर गोवा आये । पुर्तगालीयों से गोवा, दमन और दीव को 1961 ई. में भारत सरकार ने आजाद करवाया।

डचों का आगमन
(Advent of the Dutch)

भारत में पुर्तगालियों के बाद डचों (हॉलैंड या वर्तमान नीदरलैंड) का आगमन हुआ, वर्ष 1596 में भारत आने वाला प्रथम डच कार्नेलियस हाउटमैन था। 

कार्नेलियस हाउटमैन अफ्रीका के केप ऑफ गुड हॉप से होते हुए सर्वप्रथम इंडोनेशिया के सुमात्रा द्वीप पहुचा, मसालों के लिए डचो ने इंडोनेशिया में ही रुचि दिखाई थी और समय के साथ इन्होंने भारत से ज्यादा इंडोनेशियाई क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया था। 

1602 ईसवी में डच ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना हुई और डच संसद ने इस कंपनी को एक चार्टर लागू करके 21 वर्षों के लिए भारत और पूर्व के देशों के साथ व्यापार करने, युद्ध करने, क्षेत्र जीतने, किले बनाने और संधि आदि करने का अधिकार दे दिया। 'डच ईस्ट इंडिया कंपनी' कई कंपनियों को मिलाकर बनाया गया था इसलिए यह भारत में व्यापार हेतु आने वाला प्रथम संयुक्त पूंजी वाला कंपनी था। 

डचों ने जल्द ही मलय जलडमरुमध्य और इंडोनेशियाई द्वीपों से पुर्तगालियों को बाहर निकाल दिया और इन क्षेत्रों पर अपना अधिकार कर लिया। 

डचों ने पश्चिमी भारत में गुजरात के सूरत, कैम्बे, भडौच और अहमदाबाद में अपने व्यापारिक केंद्र खोले। इसी के साथ आंध्र प्रदेश के मसूलीपट्टनम, मद्रास के नागपट्टनम, केरल के कोचीन आदि इलाकों में भी अपने व्यापारिक केंद्र खोले। 

बंगाल से डच मुख्यतः सूती वस्त्र, रेशम, शोरा और अफीम का निर्यात करते थे। इंडोनेशिया के द्वीपों से हो रहे मसालों के व्यापार से संबंधित भागीदारी को लेकर डचों तथा अंग्रेजों के बीच वर्ष 1654 से संघर्ष आरंभ हुआ। 

इसी के साथ वर्ष 1658 में डचों ने पुर्तगालियों से सिंहला द्वीप (श्रीलंका) जीत लिया। 

नवंबर 1759 में अंग्रेजों एवं डचों के बीच बेदरा की लड़ाई हुई, इस युद्ध में डच सेना को अंग्रेजों द्वारा निर्णायक रूप से पराजित किया गया था। 

डचों तथा अंग्रेजों के बीच चलने वाला व्यापारिक संघर्ष 1667 ईसवी में उस समय समाप्त हुआ जब अंग्रेजों ने इंडोनेशिया पर अपने सारे दावे छोड़ दिए एवं बदले में डचो ने भी भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी पर आक्रमण न करने का वचन दिया।

डचों द्वारा भारत में स्थापित व्यापारिक केंद्र

केंद्र स्थापना वर्ष
मसूलिपट्टनम (प्रथम फैक्ट्री) 1605
पुलिकट 1610
सूरत 1616
पीपली (बंगाल में प्रथम फैक्ट्री) 1627
चिनसुरा 1653
कासिम बाज़ार 1659
पटना 1659
नागपट्टनम 1659
कोचीन 1663

अंग्रेजों का आगमन
(Advent of the British)

वर्ष 1599 में मर्चेन्ट एडवेंचर्स नाम से इंग्लैंड में प्रसिद्ध एक व्यापारिक समूह ने पूर्व से व्यापार हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी बनाई। 

31 दिसंबर 1599 को ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ ने रॉयल चार्टर के माध्यम से कंपनी को 15 साल के लिए पूर्व के साथ व्यापार का अधिकार प्रदान किया। 

वर्ष 1608 में कैप्टन हॉकिंग्स मुग़ल बादशाह जहांगीर के दरबार में शाही आज्ञा लेने गया। जहांगीर ने कैप्टन हॉकिंग्स को पश्चिमी तट के कुछ स्थानों पर व्यापारिक फैक्ट्रियाँ खोलने की इजाजत दे दी। 

ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1611 ईसवी में अपना प्रथम फैक्ट्री (अस्थायी) मसूलीपट्टनम में खोला। जल्द ही अंग्रेजों के अधिकांश गतिविधियों का केंद्र मद्रास हो गया। 

ब्रिटिश कंपनी तथा पुर्तगालियों के बीच वर्ष 1612 में स्वाली का युद्ध हुआ, यह एक नौसैनिक युद्ध था जो गुजरात के सूरत के पास स्वाली गाँव के तट पर लड़ा गया था। इस युद्ध में ब्रिटिश कंपनी का नेतृत्व थॉमस बेस्ट कर रहा था। स्वाली के युद्ध में पुर्तगालियों पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की विजय हुई थी। 

इसके बाद वर्ष 1613 में अंग्रेजों ने अपना प्रथम स्थायी फैक्ट्री सूरत में स्थापित की। 

वर्ष 1615 में अंग्रेज राजदूत टॉमस रो मुगल बादशाह जहांगीर से सभी क्षेत्रों में व्यापार करने और फैक्ट्रियाँ खोलने की इजाजत प्राप्त कर ली। 

वर्ष 1623 तक ईस्ट इंडिया कंपनी ने सूरत, भडौच, अहमदाबाद और आगरा में फैक्ट्रियाँ स्थापित कर ली थी। 

वर्ष 1639 में फ्रांसिस डे नामक अंग्रेज को चंद्रगिरी के राजा से मद्रास पट्टे पर प्राप्त हो गया। मद्रास में ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना प्रथम किला 'फोर्ट सेंट जॉर्ज' का निर्माण करवाया।

ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत में स्थापित किले

किले का नाम स्थान
फोर्ट सेंट जॉर्ज (1639) मद्रास
सेवरी किला (1680) मुंबई
थालास्सेरी किला (1683) कन्नूर (केरल)
फोर्ट विलियम (1697) कलकत्ता (बंगाल)

डेनिशों का आगमन
(Advent of Danish)

डेनमार्क की ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1616 ईसवी में हुई, इस कंपनी ने वर्ष 1620 में ट्रेंकोबार (तमिलनाडु) एवं 1676 ईसवी में सेरामपुर (बंगाल) में अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किए। वर्ष 1845 में डेनिश कंपनी ने अपने वाणिज्यिक केंद्र अंग्रेजों को बेच दिया।


फ्रांसीसियों का आगमन
(Advent of French)

फ्रांस के महाराज लुई चौदहवे के मंत्री कॉलबर्ट द्वारा वर्ष 1664 में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी (कम्पेन डेज इंडेज ऑरियंटलेस) की स्थापना हुई। 

फ्रांस की इस व्यापारिक कंपनी को राज्य द्वारा विशेषाधिकार एवं वित्तीय संसाधन प्राप्त था इसलिए यह एक सरकारी कंपनी थी। 

वर्ष 1667 में 'फ्रेंसिस कैरो' के नेतृत्व में एक दल भारत प्रस्थान किया। वर्ष 1668 में फ्रांस की कंपनी ने अपनी पहली व्यापारिक केंद्र सूरत में स्थापित किया। 

वर्ष 1669 में दूसरी फ्रेंच फैक्ट्री का निर्माण मसूलीपट्टनम (आंध्र प्रदेश) में स्थापित हुआ। 

वर्ष 1673 में फ्रेंच कंपनी के निदेशक 'फ्रेंसिस मार्टिन' ने वेलिकोण्डपुर के सूबेदार शेर खाँ लोदी से पर्दूचरी नामक एक गाँव प्राप्त किया जिसे पांडिचेरी नाम से विकसित किया। 

1690-92 ईसवी के दौरान फ़्रांसीसियों ने बंगाल के सूबेदार शाइस्ता ख़ान द्वारा प्राप्त स्थान पर चंद्रनगर की स्थापना की। 

1693 ईसवी में डचों ने अंग्रेजों की सहायता से पांडिचेरी छिन लिया, किन्तु 1697 ईसवी में रिजविक की संधि के बाद फ़्रांसीसियों को पांडिचेरी वापस मिल गया। 

वर्ष 1701 में फ्रेंच कंपनी ने पांडिचेरी को पूर्व में फ्रांसीसी बस्तियों का मुख्यालय बनाया। पांडिचेरी के कारखाने में ही 'फ्रांसिस मार्टिन' ने फोर्ट लुई का निर्माण करवाया। 

समय के साथ फ़्रांसीसियों ने 1721 ईसवी में मॉरिशस (पूर्वी अफ्रीकी देश), 1724 ईसवी में मालाबार तट के समीप स्थित 'माहे' एवं 1739 ईसवी 'कराईकल' पर अपना अधिकार कर लिया। 

वर्ष 1742 के पश्चात अंग्रेजों एवं फ़्रांसीसियों के मध्य व्यापारिक अस्तित्व के लिए संघर्ष शुरू हुआ जो कि वर्ष 1746 में कर्नाटक के प्रथम युद्ध के रूप में प्रारंभ हुआ।

आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष


ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांस के सरकारी कंपनी के बीच व्यापारिक एवं शासकीय संघर्ष लगभग 20 वर्षों तक चली। इस संघर्ष की शुरुआत वर्ष 1746 में कर्नाटक के प्रथम युद्ध से हुआ।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई.)

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी तथा फ्रांसीसी कंपनी के बीच हुआ कर्नाटक का प्रथम युद्ध यूरोप में हुए ऑस्ट्रीया के उत्तराधिकार युद्ध से प्रभावित था। 

वर्ष 1748 में 'एक्स-ला-चैपल की संधि' के माध्यम से ऑस्ट्रीया का उत्तराधिकार युद्ध की समाप्ति हुई और इसी के साथ कर्नाटक के प्रथम युद्ध का भी समापन हुआ। संधि के परिणामस्वरूप फ़्रांसीसियों ने अंग्रेजों को मद्रास वापस कर दिया।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई.)

वर्ष 1748 में दक्कन (हैदराबाद) के निजाम आसफ़जहाँ की मृत्यु हो गई, जिससे उसके पुत्र नासिरजंग एवं नाती मुजफ्फर जंग में उत्तराधिकार के लिए संघर्ष आरंभ हुआ, वही दूसरी तरफ कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन और चंदा साहब के बीच विवाद उत्पन्न हुआ। इस अवस्था में फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने लाभ उठाया और मुजफ्फर जंग एवं चंदा साहब के पक्ष में हो गया तथा उन्हे सैन्य सहायता देने का वचन दिया, वही कर्नाटक का नवाब अनवरुद्दीन और नासिर जंग ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से हाथ मिला लिया था। 

अगस्त 1749 में चंदा साहब और मुजफ्फर जंग ने अपनी सेना और फ्रांसीसी सेना के साथ कर्नाटक की राजधानी आर्कोट पर आधिपत्य के लिए आगे बढ़ना शुरू कर दिया, उन्हे रास्ते में ही रोकने हेतु  कर्नाटक का नवाब अनवरुद्दीन अपनी सेना एवं ब्रिटिश सेना लेकर अम्बूर पहुचा। 

अगस्त 1749 को हुए इस युद्ध को ही अम्बूर का युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में अनवरुद्दीन मारा गया और इसी के साथ कर्नाटक का अगला नवाब चंदा साहब बने। इस जीत से खुश होकर चंदा साहब ने फ़्रांसीसियों को पांडिचेरी के पास 80 गाँव प्रदान किए। 

वर्ष 1750 में हुए जिंजी की लड़ाई में चंदा साहब, मुजफ्फरजंग एवं फ़्रांसीसियों की संयुक्त सेना तथा हैदराबाद का निजाम नासिर जंग क साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की संयुक्त सेना एक बार फिर आमने-सामने आई। जिंजी की लड़ाई के दौरान ही हैदराबाद के निजाम नासिर जंग की हत्या कर दी गई और इसी के साथ मुजफ्फर जंग ने हैदराबाद के निजाम का पद अपने नाम कर लिया किन्तु इस बार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का नेतृत्व रॉबर्ट क्लाइव ने अपने हाथ में ले लिया था। कर्नाटक के वद्रोही वारिस मुहम्मद अली और ब्रिटिश सेना का नेतृत्व कर रहे राबर्ट क्लाइव ने कर्नाटक के नवाब चंदा साहब की राजधानी आर्कोट पर आक्रमण कर दिया, जल्दी ही फ़्रांसीसियों और चंदा साहब की संयुक्त सेना ने आत्म समर्पण कर दिया और चंदा साहब की हत्या कर दिया गया। 

वर्ष 1755 में फ्रांसीसी कंपनी और ब्रिटिश कंपनी में शांति समझौता हुआ जिसे पांडिचेरी की संधि के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध के बाद फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले को फ्रांस की सरकार ने वापस बुला लिया जो कि आगे चलकर फ्रांसीसी कंपनी के लिए घातक सिद्ध हुई।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-63 ई.)

कर्नाटक के द्वितीय युद्ध में हुए अस्थायी पांडिचेरी का समझौता वर्ष 1756 में तब समाप्त हो गया, जब इंग्लैंड देश और फ्रांस के बीच एक बार फिर युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध को सप्तवर्षीय युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। 

अंग्रेजों और फ़्रांसीसियों के मध्य छिड़ा यह सप्तवर्षीय युद्ध यूरोप, कनाडा और भारत में भी लड़ा जा रहा था। भारत में ब्रिटिश कम्पनी का नेतृत्व आयर कुट ने किया था वही फ्रांसीसी कम्पनी की ओर से कॉम्टे डी लैली ने कमान संभाली। 

22 जनवरी 1760 को हुआ वांडीवाश का युद्ध ने भारत में ब्रिटिश कम्पनी एवं फ्रांसीसी कम्पनी के बीच निर्णायक युद्ध की भूमिका निभाई। इस युद्ध का अन्त वर्ष 1763 में पेरिस समझौते के साथ हुआ। 

इस संधि में फ़्रांसीसियों को उनकी फैक्ट्रियाँ वापस कर दिया गया किन्तु वे अब किले-बंदी नहीं कर सकते थे और न ही वहाँ सैनिक रख सकते थे। कर्नाटक के तीसरे युद्ध के पश्चात भारत में फ़्रांसीसियों का प्रभुत्व न के बराबर हो गया।


Note: 📢
उपरोक्त डाटा में कोई त्रुटि होने या आकड़ों को संपादित करवाने के लिए साथ ही अपने सुझाव तथा प्रश्नों के लिए कृपया Comment कीजिए अथवा आप हमें ईमेल भी कर सकते हैं, हमारा Email है 👉 upscapna@gmail.com ◆☑️

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