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जैन धर्म एवं इसके सिद्धांत | Jainism in Hindi

जैन दर्शन तथा सांख्य दर्शन दोनों ही जीव की अनेकता में विश्वाश करते है तथा अज्ञान को बंधन का कारण मानते है।

महावीर की शिक्षाएँ 'उत्तरध्यान सूत्र' नामक ग्रंथ में मिलती है।  इसमें जैन अनुयायियों के लिए पालन करने योग्य आचार संहिता का वर्णन हैं। 'उत्तरध्यान सूत्र' नामक ग्रंथ का जैन साहित्य में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। यह धार्मिक सिद्धांतों और प्रथाओं के बारे में सूचना प्रदान करता है और ऐसे सिद्धांतों और प्रथाओं पर स्थापित कई कहानियां एवं संवाद को उदाहरण द्वारा विस्तार से समझाता है।

Jainism in Hindi upsc
Jain Dharma in Hindi

जैन साहित्यों को आगम के नाम से भी जाना जाता है, इन ज्यादातर साहित्यों की भाषा अर्ध-मग्धी प्राकृत हैं। कल्पसूत्र ग्रंथ में जैन तीर्थंकरों की आत्मकथाएँ वर्णित हैं, इसे भद्रबाहु द्वारा चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में लिखा गया था। अंतिम तीर्थंकर महावीर स्वामी ने वर्तमान बिहार के पावा में अपने चतुर्विध संघ (फोरफोल्ड ऑर्डर) की स्थापना की थी। चतुर्विध संघ में भिक्षु (साधु), भिक्षुणी (साध्वी), आम अनुयायी (श्रावक), और आम महिला अनुयायी (श्राविका) शामिल थे। इस चतुर्विध संघ की स्थापना जैन धर्म की शिक्षाओं और सिद्धांतों को फैलाने एवं अन्य जैन दर्शनों जैसे अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और तपस्या को बढ़ावा देने के लिए किया गया था। चतुर्विध संघ की भूमिका जैन धर्म के सिद्धांत को सामान्य जन के बीच अधिक व्यापक रूप से फैलाने में महत्वपूर्ण रही।

जैन धर्म का परिचय (About Jainism in Hindi)

  • 'जैन' शब्द 'जिन' से निकला है, 'जिन' का मतलब 'अपने इंद्रियों को जीतने वाला' होता है। 
  • जैन धर्म के आचार्यों अर्थात संस्थापकों को तीर्थंकर कहा जाता है। 
  • ये तीर्थंकर ही 'जिन' अर्थात 'इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले' कहलाए। अतः इन तीर्थंकरों अर्थात 'जिन' के अनुयायियों को ही 'जैन' कहा जाता है। 
  • जैन धर्म के अनुसार कुल 24 तीर्थंकरों का उदय हुआ। 
  • इसके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे। अंतिम दो तीर्थंकरो में 23वें पार्श्वनाथ एवं 24वें महावीर स्वामी थे। 
  • सम्भवनाथ जैन धर्म के तीसरे तीर्थंकर थे, इनका जन्म श्रावस्ती में हुआ था। 8वें तीर्थंकर चंद्रप्रभ का जन्म भी श्रावस्ती में ही हुआ था। 
  • ऋषभदेव का प्रतीक चिन्ह 'वृषभ', 16वें तीर्थंकर शांतिनाथ का प्रतीक 'मृग' , 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ का प्रतीक चिन्ह 'जलकलश' , पार्श्वनाथ का 'सर्प' एवं महवीर स्वामी का प्रतीक चिन्ह 'सिंह' है। 
  • दक्षिण भारत में प्रसिद्ध जैन केंद्र  कर्नाटक के मैसूर में स्थित श्रवणबेलगोला है। 
  • अहिंसासत्यअस्तेय (अचौर्य- चोरी न करना), अपरिग्रह (संपत्ति अर्जित न करना) तथा ब्रह्मचर्य जैन धर्म के पंच महाव्रत है। 
  • जैन धर्म में अहिंसा या किसी प्राणी को न सताने के व्रत को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। 
  • जैन धर्म में युद्ध और कृषि दोनों वर्जित है क्यों कि दोनों से ही जीवों कि हत्या होती है। 

जैन धर्म के तीर्थंकर : Jain Tirthankar


    1. ऋषभदेव या आदिनाथ
    2. अजितनाथ
    3. सम्भवनाथ
    4. अभिनंदन जी
    5. सुमतिनाथ
    6. पद्मप्रभ जी
    7. सुपार्श्वनाथ
    8. च्ंद्रप्रभ जी
    9. पुष्पदंत जी या सुविधिनाथ
    10. शीतलनाथ
    11. श्रेयान्सनाथ
    12. वासुपूज्य जी
    13. विमलनाथ
    14. अनंतनाथ
    15. धर्मनाथ
    16. शांतिनाथ
    17. कुंथुनाथ
    18. अरहनाथ
    19. मल्लिनाथ
    20. मुनिसुव्रत जी
    21. नमिनाथ
    22. अरिष्टनेमि जी
    23. पार्श्वनाथ
    24. वर्धमान महावीर स्वामी

ऋषभदेव या आदिनाथ (Rishabhnath)

  • ऋषभदेव जी जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर माने जाते है। 
  • माना जाता है कि ऋषभदेव जी जंबुद्वीप के प्रथम चक्रवर्ती सम्राट थे और वृद्धावस्था में अपने पुत्र भरत को राज्य देकर वह स्वयं सन्यासी बन गए। 
  • ऋषभदेव जी का जन्म अयोध्या क्षेत्र में हुआ था। 
  • वेदों में केवल दो तीर्थंकरों ऋषभदेव तथा अरिष्टनेमि का उल्लेख मिलता है। 
  • विष्णु पुराण तथा भागवत पुराण में ऋषभदेव को नारायण के अवतार के रूप में चित्रित किया गया है। 
  • कंकाली टीला मथुरा में जैन तीर्थंकरों के चित्र प्राप्त हुए है, जिनमें ऋषभदेव का प्रतीक सांड (वृषभ) दिखाया गया है। 

पद्मप्रभ जी (Padmaprabha)

  • उत्तर प्रदेश के कौशाम्बी जिले के प्रभासगिरि में एक जैन तीर्थस्थल है, यह जैन तीर्थस्थल छठे जैन तीर्थंकर पद्मप्रभ जी से संबन्धित है। 
  • पद्मप्रभ (पद्मनाथ) जी का जन्म कौशाम्बी में हुआ था। मध्ययुगीन जैन ग्रन्थों में कौशाम्बी को विविध तीर्थकल्प कहा गया है। 

पार्श्वनाथ जी (Parshwanath)

  • पार्श्वनाथ जी का काल महावीर स्वामी से 250 ईसा पूर्व माना जाता है। 
  • पार्श्वनाथ जी जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर माने जाते है। इनकी ऐतिहासिकता प्रमाणित हो चुकी है। 
  • पार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ था। 
  • पार्श्वनाथ जी वाराणसी (काशी) के इक्ष्वाकु वंश के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। उनका विवाह कौशल देश की राजकुमारी प्रभावती के साथ हुआ था। 
  • छोटा नागपुर के पठार की चोटी सम्मेद शिखर पर पार्श्वनाथ जी ने कठोर तपस्या की थी। तपस्या के 84वें दिन पार्श्वनाथ को कैवल्य की प्राप्ति हुई। 
  • 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को निर्वाण भी सम्मेद शिखर पर ही प्राप्त हुआ। 
  • मथुरा के कंकाली टीला में प्राप्त जैन चित्रों में पार्श्वनाथ जी का प्रतीक 'सर्प-फन' को दर्शाया गया है। 
  • पार्श्वनाथ के अनुयायियों को 'निर्ग्रंथ' कहा जाता है। 
  • 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने जैन भिक्षुओं के लिए केवल 4 व्रतों का विधान किया था - अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना) तथा अपरिग्रह (लोभ न करना/ कोई भी वस्तु संचय न करना) । इसीलिए पार्श्वनाथ की शिक्षाएँ संगृहीत रूप से चातुर्याम (Chaturyam) नाम से प्रसिद्ध है। 
  • बाद में 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने इन चार व्रतों में पांचवा व्रत 'ब्रह्मचर्य' जोड़ दिया। 
  • इस प्रकार अहिंसासत्यअस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य जैन धर्म के पंच महाव्रत कहलाए। 

महावीर स्वामी (Mahaveer Swami)

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Ancient History
  • 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 540 ईसा पूर्व वैशाली के कुंडग्राम में हुआ था। कुंडग्राम का आधुनिक नाम बासु कुंड है। 
  • वर्धमान महावीर स्वामी को जैन धर्म का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। 
  • इनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के तथा वज्जि संघ के प्रधान थे। 
  • इनकी माता त्रिशला लिच्छवी गणराज्य की राजकुमारी थी जो कि लिच्छवी के राजा चेटक की बहन थी। 
  • महावीर स्वामी के पत्नी का नाम यशोदा था। महावीर स्वामी के पुत्री का नाम 'प्रियदर्शना (अणोंज्या)' था। प्रियदर्शना का विवाह 'जमालि' के साथ हुआ, जमालि महावीर स्वामी का दामाद तथा प्रथम अनुयायी/शिष्य बना। 
  • महावीर स्वामी के अन्य नाम वीर, अतिवीर, वर्धमान तथा सन्मति है। 
  • 30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने गृहत्याग किया। 12 वर्ष की कठोर साधना के बाद 42 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी को जृंभिकग्राम के निकट ऋजुपलिका नदी के तट पर साल के वृक्ष के नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति हुई। 
  • महावीर स्वामी की मृत्यु 72 वर्ष कि आयु में 468 ईसा पूर्व पावापुरी (राजगीर -पटना के समीप) में हुई। 
  • मथुरा के कंकाली टीला में प्राप्त कलाकृति में महावीर स्वामी का प्रतीक चिन्ह 'सिंह' दर्शाया गया है। 

जैन धर्म के सिद्धान्त, दर्शन तथा प्रथाएँ (Jain Philosophy)

  • जैन दर्शन के अनुसार समस्त विश्व की रचना सार्वभौमिक विधान (Universal Law) से हुआ है। 
  • समस्त सृष्टि जीव तथा अजीव नामक दो नित्य तथा स्वतंत्र तत्वों से मिलकर बना है। जीव चेतन है जबकि अजीव जड़ है। 
  • यहाँ जीव का अर्थ सार्वभौमिक आत्मा न होकर व्यक्तिगत आत्मा से है। 
  • जैन धर्म के अनुसार आत्माएं अनेक होती है तथा संसार के कण-कण में जीवों का वास होता है। 
  • इस प्रकार जैन मतानुसार विश्व की रचना एवं पालन-पोषण सार्वभौमिक विधान से हुआ है। 
  • जैन दर्शन का सांख्य दर्शन से अधिक समानता है। जैसे कि जैन धर्म में माना जाता है कि संसार का विकास जीव तथा अजीव नामक द्रव्यों से होता है वही सांख्य दर्शन प्रकृति तथा पुरुष से सृष्टि के विकास का उल्लेख करता है। 
  • जैन धर्म में तत्वों की संख्या 7 मानी जाती है इनमे जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संकर, निर्जरा और मोक्ष शामिल है, वही सांख्य दर्शन 25 तत्वों को मानता है। 
  • जैन दर्शन तथा सांख्य दर्शन दोनों ही जीव की अनेकता में विश्वाश करते है तथा अज्ञान को बंधन का कारण मानते है।

स्यादवाद अथवा अनेकान्तवाद (Principle of Infiniteness of Truth)

  • जैन धर्म के अनुसार ज्ञान का सिद्धान्त स्यादवाद कहलाता है। 
  • तत्वमीमांसा की दृष्टि से इसे अनेकान्तवाद भी कहा जाता है, जिसके अंतर्गत इस बात का अंदाजा लगाया जाता है कि सच के अनेक पहलू है। 
  • इसमे किसी भी वस्तु के संबंध में सात परामर्श दिये जाने की बात कही जाती है, इसीलिए स्यादवाद को सप्तभंगीनय भी कहा जाता है। 
  • जैन धर्म के अनुसार सांसारिक वस्तुओं के विषय में हमारे सभी निर्णय सापेक्ष और सीमित होते है। किसी भी विचार को न तो हम पूर्ण रूप से स्वीकार कर सकते है और न ही अस्वीकार कर सकते है। अतः हमें प्रत्येक निर्णय से पूर्व 'स्यात' (शायद) लगाना चाहिए। 
  • सप्तभंगीनय (सात परामर्श) को ज्ञान का सापेक्षता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। ये सात प्रकार निम्नलिखित है। 
  1. स्यात् यह वस्तु है (स्यात् अस्ति)
  2. स्यात् यह नहीं है (स्यात् नास्ति)
  3. स्यात् यह है भी और नहीं भी है (स्यात् अस्ति च नास्ति)
  4. स्यात् यह अव्यक्त है (स्यात् अव्यक्तम) 
  5. स्यात् यह है तथा अव्यक्त है (स्यात् अस्ति च अव्यक्तम) 
  6. स्यात् यह नहीं है तथा अव्यक्त है (स्यात् नास्ति च अव्यक्तम)
  7. स्यात् यह है, नहीं है तथा अव्यक्त है (स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तम)

अणुव्रत सिद्धान्त (Concept of Anuvrata)

  • जैन धर्म में अणुव्रत सिद्धान्त का प्रतिपादन पंचमहाव्रत अर्थात अहिंसासत्यअस्तेय, अपरिग्रह तथा ब्रह्मचर्य को गृहस्थों के लिए सरल बनाने के लिए किया गया था। 
  • अतः गृहस्थ जीवन के संबंध में पंचमहाव्रतों को ही अणुव्रत सिद्धान्त कहा गया। इसमें कठोर व्रतों को कुछ सरल बनाया गया था। 

सल्लेखना या संथारा प्रथा (Sallekhana in Jainism)

  • जैन धर्म में 'सल्लेखना' अथवा 'संथारा' से तात्पर्य उपवास द्वारा प्राण त्यागने से है। 
  • चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म को अपनाया था। 
  • मगध में अकाल की समस्या से निपटने में असफल होने से चन्द्रगुप्त ने अपने राज्य का परित्याग कर दिया और अपने पुत्र को राजा बनाकर स्वयं भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला (मैसूर-कर्नाटक) तपस्या करने चले गए, श्रवणबेलगोला में ही चन्द्रगुप्त मौर्य ने 'सल्लेखना' विधि से अपने प्राण त्याग दिये। 
  • वर्तमान भारत में इस प्रथा को सती प्रथा के तरह ही गैरकानूनी माना जाता है क्योंकि वास्तव में यह आत्महत्या के समान है। 

त्रिरत्न सिद्धान्त (Doctrine of three jewels)

  • जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने मोक्ष पाने के लिए त्रिरत्न सिद्धान्त (तीन साधन) बताया।  ये निम्नलिखित है।

1. सम्यक दर्शन (Proper Realization)

जैन तीर्थंकरों और उनके उपदेशों में दृढ़ विश्वास ही सम्यक दर्शन (श्रद्धा) है। 
इसके आठ अंग बताए गए है- संदेह से दूर रहना, सांसारिक सुखों की इच्छा का त्याग, शरीर के मोह से दूर रहना, भ्रामक मार्ग पर न चलना, सही विश्वास पर अटल रहना, सबके प्रति प्रेम-भाव रखना, जैन धर्म को श्रेष्ठ समझना।

2. सम्यक ज्ञान (Proper Knowledge)

जैन धर्म तथा उसके सिद्धान्त का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है। जैन धर्म में ज्ञान पाँच प्रकार के बताएं गए है- मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्याय और केवल्य

3. सम्यक चरित्र (Proper Character)

इसके अनुसार जो कुछ भी जाना जा चुका है और सही माना जा चुका है उसे कार्यरूप में परिणत करना ही सम्यक चरित्र है। 

Ancient History

जैन सम्मेलन या संगीति (Jain Councils)

  • जैन धर्म लगभग 300 ईसा पूर्व में श्वेतांबर तथा दिगंबर नामक दो संप्रदायों में बट गया था। मगध में जब अकाल पड़ा तो स्थूलभद्र के नेतृत्व में जो लोग मगध में ही रह गए श्वेतांबर कहलाए, तथा भद्रबाहु के नेतृत्व में जो लोग कर्नाटक चले गए दिगंबर कहलाए। 
  • प्राचीन जैन ग्रंथो को एकत्र करने तथा जैन उपदेशों को संग्रहीत करने के उद्देश्य से स्थूलभद्र की अध्यक्षता में पाटलीपुत्र में प्रथम जैन सम्मेलन का आयोजन हुआ।  
  • 512 ईस्वी (छठी शताब्दी) में जैन धर्म के स्वरूप को निश्चित करने तथा जैन साहित्यों का संकलन करने के लिए 'देवर्धि क्षमाश्रमण' की अध्यक्षता में कठियावाड़ स्थित बल्लभी में द्वितीय जैन महासभा का आयोजन हुआ जिसमें 12 उपांगों की रचना हुई। इसी सभा में 'आगम' (जैन ग्रंथ) का अंतिम रूप से सम्पादन हुआ।  
  • जैन धर्म के कुल दो सम्मेलनों का विवरण इस प्रकार है।

प्रथम जैन संगीति (First Jain Council)

  • काल – प्रथम जैन संगीति का आयोजन 300 ई.पू. में हुआ।
  • शासनकाल – यह सभा चंद्रगुप्त मौर्य के काल में हुई थी।
  • आयोजन स्थल – पाटलिपुत्र
  • अध्यक्ष – स्थूलभद्र
  • कार्य – प्रथम जैन संगीति के पहले जैन धर्मग्रंथ 14 पूर्वो में विभाजित था। (प्राचीनतम जैन ग्रन्थों को 'पूर्व' कहा जाता है) प्रथम जैन सम्मेलन में 14 पूर्वो का स्थान 12 अंगों ने ले लिया। 

द्वितीय जैन सभा (Second Jain Council)

  • काल – द्वितीय जैन संगीति का आयोजन 512 ई.में हुआ।
  • शासनकाल – ध्रुवसेन प्रथम (गुजरात के वल्लभी का मैत्रकवंशीय शासक)
  • आयोजन स्थल - वल्लभी में द्वितीय जैन संगीति हुई थी।
  • अध्यक्ष– देवर्धि क्षमाश्रमण 
  • कार्य - धर्म ग्रंथों को अंतिम रूप से संकलित कर लिपिबद्ध किया गया।

जैन साहित्य (Jain Epics)

  • जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने मोक्ष पाने के लिए त्रिर
  • जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी के माध्यम से दिये गए मूल सिद्धांतों को चौदह पूर्वो में संकलित किया गया।
  • 'चौदह पूर्व' जैन धर्म का सबसे प्राचीनतम ग्रंथ है। 
  • भगवती सूत्र में महावीर स्वामी तथा प्रमुख तीर्थंकरों के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। भगवती सूत्र में स्वर्ग तथा नर्क का भी वर्णन है। 
  • जैन धर्म के प्रारम्भिक इतिहास की जानकारी 'कल्पसूत्र' से मिलती है। 
  • 'कल्पसूत्र' की रचना भद्रबाहु ने की थी। 
  • 'परिशिष्ठपर्वन' एक जैन ग्रंथ है जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य के प्रारम्भिक जीवन और उत्तरकालीन घटनाओं की जानकारी मिलती है। 'परिशिष्ठपर्वन', 'त्रिशिष्टशलाका पुरुष चरित्र' का परिशिष्ट है।  
  •  'परिशिष्ठपर्वन' की रचना हेमचन्द्र ने की थी। 
  • 'कालिका पुराण' एक जैन ग्रंथ है, कालिका पुराण को कलि पुराण भी कहते है। 
  • जैन धर्म के अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथो में कठकोष, कल्प सूत्र, आवश्यक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, सूत्रकृतांग, आचरांगसूत्र आदि सम्मिलित है। 

आगम (Agam)

  • आगम शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में साहित्य के लिए किया जाता है।
  • जैन आगम की भाषा अर्धमागधी या मागधी या प्राकृत है किन्तु कुछ जैन साहित्य संस्कृत में भी पाये गए है। 
  • जैन साहित्य जिसे आगम कहा जाता है इसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेद सूत्र, 4 मूल सूत्र, अनुयोग सूत्र और नंदिसूत्र की गणना की जाती है। 
  • 'आगम' शुरू में लिपिबद्ध नहीं किया गया था, यह गुरु-शिष्य परम्परा के माध्यम से मौखिक रूप से याद रखा गया इसीलिए इसे 'श्रुतांग' भी कहते है।  
  • आगमों की रचना संभवतः श्वेतांबर संप्रदाय के आचार्यों ने महावीर स्वामी के मृत्यु के बाद की है। 

मूल सूत्र (Mool Sutra)

मूल सूत्रों की संख्या चार है।  मूलसूत्रों में जैन धर्म के उपदेश, जैन भिक्षुओं के कर्तव्य, जैन विहार का जीवन, यम-नियम आदि का वर्णन है। 
 
ये चार मूल सूत्र निम्न है -

  1. उत्तराध्ययन सूत्र
  2. षडावशयक
  3. दशवैकालिक
  4. पिण्डनिर्युक्त या पाक्षिक सूत्र

Note: 📢
उपरोक्त डाटा में कोई त्रुटि होने या आकड़ों को संपादित करवाने के लिए साथ ही अपने सुझाव तथा प्रश्नों के लिए कृपया Comment कीजिए अथवा आप हमें ईमेल भी कर सकते हैं, हमारा Email है 👉 upscapna@gmail.com ◆☑️

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A teacher is a beautiful gift given by god because god is a creator of the whole world and a teacher is a creator of a whole nation.

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