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कृषि एवं प्रौद्योगिकी || Agriculture And Technology in Hindi (Part-2)

उर्वरक (Fertilisers) व्यावसायिक रूप में तैयार रासायनिक पादप पोषक है। उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम (NPK) की आपूर्ति करते हैं।

भारत एवं विश्व में निरंतर बढ़ती जनसंख्या की खाद्य माँग को पूरा करने के लिए खाद्य संसाधनों की पोषण गुणवत्ता, उत्पादन क्षमता एवं आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिए कृषि एवं पशुपालन जैसे प्राथमिक क्षेत्रों से प्राप्त भोजन के उत्पादन के साथ-साथ इनका समुचित प्रबंधन (Management) एवं परिरक्षण (Preservation) भी आवश्यक होता है।

february 2024 करेंट अफ़ैरस हिन्दी
Agriculture And Technology in Hindi

कृषि (Agriculture) के अंतर्गत एक निश्चित भू-भाग पर फसल (किसी स्थान पर बड़े स्तर पर उगाए गए एक ही किस्म के आर्थिक महत्त्व के पौधे) का उत्पादन कर पादप उत्पाद के रूप में भोजन प्राप्त किया जाता है। कृषि की शुरुआत लगभग 10000 वर्ष पूर्व की मानी जाती है।


फसलों का वर्गीकरण (Classification of Crops)

फसलों को दो प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है -

उत्पादन के आधार पर

उत्पादन के आधार पर फसलों के प्रमुख प्रकार निम्नवत् हैं -

अनाज (Cereal crops) - इन पौधों की कृषि, ऊर्जा की दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु की जाती है। उदाहरण-गेहूँ, मक्का, बाजरा तथा ज्वार ऊर्जा की आपूर्ति हेतु कार्बोहाइड्रेट प्रदान करते हैं।

दालें (Pulses) - इनकी कृषि प्रोटीन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु की जाती है। उदाहरण-चना, मटर, उड़द, मूँग, अरहर, मसूर, आदि।

तेलयुक्त बीजों वाली फसलें (Oil seed crops) - इन पौधों से हमें आवश्यक वसा व तेल प्राप्त होते हैं, उदाहरण-सोयाबीन, मूँगफली, तिल, अरंडी, सरसों, अलसी, सूरजमुखी, आदि।

सब्जियाँ, मसालें तथा फल (Vegetables, species and fruits) - इनसे हमें कुछ मात्रा में प्रोटीनयुक्त विटामिन तथा खनिज लवण, वसा व कार्बोहाइड्रेट प्राप्त होते हैं; उदाहरण-पत्तागोभी, प्याज, काली मिर्च आदि।

चारा फसलें (Fodder crops) - इन फसलों का प्रयोग पशुधन के चारे के रूप में किया जाता है; जैसे-वर्सीम, जई तथा सूडान घास।

ऋतु के आधार पर

ऋतु के आधार पर फसलों को निम्न वर्गों में बाँटा गया है -

ऋतुएँ समय/महीना फसलें
रबी (शीत ऋतु की फसले) अक्टूबर-नवम्बर में बुआई अप्रैल-मई में कटाई गेहूँ, जौ, चना, मटर, सरसों, मसूर, आलू, अलसी, तंबाकू, प्याज, टमाटर
जायद (ग्रीष्म ऋतु की फसले) मार्च-अप्रैल में बुआई जून-जुलाई में कटाई तरबूज, खरबूज, ककड़ी, खीरा, करेला
खरीफ (वर्षा ऋतु की फसले) जून-जुलाई में बुआई सितंबर-अक्टूबर में कटाई अरहर, सोयाबीन, धान, ज्वार, बाजरा, रागी, मक्का, सोयाबीन, मूँगफली, कपास, सन, जूट, उड़द, गन्ना

फसल उत्पादन में सुधार

फसल उत्पादन में सुधार (Imporvement in crop yields) के प्रयासों को तीन चरणों में बाँटा जा सकता है- प्रथम, बोने हेतु बीजों का चयन, दूसरा, फसलों की उचित देखभाल तथा तीसरा, खेतों में उगी फसल की सुरक्षा तथा कटी हुई फसल को हानि से बचाना है।

1. फसल की किस्मों में सुधार

इस प्रयास का मुख्य उद्देश्य फसल की ऐसी किस्म की खोज करना है, जो विभिन्न परिस्थितियों; जैसे-उच्च मृदा लवणता, विविध जलवायु परिस्थितियाँ, जल उपलब्धता (सूखा व बाढ़) में भी जीवित रह सकें एवं बेहतर उत्पादन दे सकें। फसल की किस्मों (प्रभेदों) के लिए विभिन्न उपयोगी गुणों; जैसे-रोग प्रतिरोधक क्षमता, उर्वरक के प्रति अनुरूपता, उत्पादन की गुणवत्ता तथा उच्च उत्पादन का चयन प्रजनन द्वारा कर सकते हैं। इन गुणों से युक्त नई किस्म उच्च रूप से स्वीकार्य होती है। फसल की किस्मों में ऐच्छिक गुणों को निम्न दो विधियों द्वारा स्थानांतरित किया जा सकता है -
  
  • संकरण : इस विधि में भिन्न आनुवंशिक गुणों वाले पौधों में संकरण (Hybridisation) द्वारा नई किस्म (संकर) या उच्च उत्पादक किस्म (High Yielding Varieties, HYV) प्राप्त की जाती है। संकरण निम्न प्रकार का होता है -
    • (a) अंतराकिस्मीय (Intervarietal) इस विधि में पादप की दो भिन्न किस्मों के मध्य संकरण कराया जाता है।
    • (b) अंतरास्पीशीज (Interspecific) इसमें एक वंश (जीन्स) की दो भिन्न जातियों (स्पीशीजों) के मध्य संकरण कराते हैं।
    • (c) अंतरावंशीय (Intergeneric) इसने विभिन्न जेनेरा से संबंधित पादपों के मध्य संकरण कराया जाता है।

  • आनुवंशिकीय रूपांतरित फसलें : इसके द्वारा उच्च उत्पादकता, उच्च गुणवत्ता, आदि गुणों वाली रूपांतरित फसलें प्राप्त की जाती हैं। आनुवंशिकीय रूपांतरण द्वारा फसल में ऐच्छिक गुणों को उत्पन्न किया जा सकता है।

कुछ कारक जिनके लिए फसलों की किस्म में सुधार किए जाते हैं, निम्नवत् हैं -
      
  • उच्च उत्पादन (Higher Yield) फसलों की किस्म में सुधार प्रति एकड़ फसल की उत्पादकता बढ़ाने हेतु किया जाता है।
  • उन्नत किस्में (Improved Quality) फसल उत्पाद की गुणवत्ता, प्रत्येक फसल में भिन्न होती है। दाल में प्रोटीन की गुणवत्ता, तिलहन में तेल की गुणवत्ता और फल तथा सब्जियों का संरक्षण महत्त्वपूर्ण होता है।
  • जैविक तथा अजैविक प्रतिरोधकता (Biotic and Abiotic Resistance) जैविक (रोग, कीट तथा निमेटोड) तथा अजैविक (सूखा, क्षारता, जलक्रांति, सर्दी, गर्मी तथा पाला) परिस्थितियों का फसल उत्पादन पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इन परिस्थितियों को सहन कर सकने वाली किस्में फसल उत्पादन में सुधार कर सकती हैं।
  • परिपक्वन काल में परिवर्तन (Change in Maturity Duration) फसल को उगाने से लेकर कटाई तक कम-से-कम समय लगना आर्थिक दृष्टि से सही है। इससे किसान प्रतिवर्ष अपने खेतों में अनेक फसलें उगा सकते हैं। कम समय होने के कारण फसल उत्पादन में धन भी कम खर्च होता है। समान परिपक्वन कटाई की प्रक्रिया को सरल बनाता है और कटाई के दौरान होने वाली फसल की हानि भी कम हो जाती है।
  • व्यापक अनुकूलता (Wide Adaptability) इस प्रकार की किस्मों का विकास करना विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में फसल उत्पादन को स्थायी करने में सहायक होगा। इस प्रकार एक ही किस्म को विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न जलवायु में उगाया जा सकता है।
  • ऐच्छिक शस्य विज्ञान गुण (Desirable Agronomic Characteristics) ये वे गुण हैं, जो पादप में उत्तम वृद्धि व उच्च उत्पादकता दर्शाते हैं। इन गुर्णो वाले पादप अन्य पादपों की अपेक्षा अधिक पसंद किए जाते हैं। जैसे-चारे वाली फसलों के लिए लंबी तथा सघन शाखाएँ ऐच्छिक गुण हैं। अनाज के लिए बौने पौधे उपयुक्त होते हैं, ताकि इन फसलों को उगाने के लिए कम पोषकों की आवश्यकता हो। इस प्रकार शस्य विज्ञान वाली किस्में अधिक उत्पादन प्राप्त करने में सहायक होती हैं।

2. फसल उत्पादन प्रबंधन

इसके अंतर्गत उच्च उत्पादकता हेतु फसल उत्पादन के विभिन्न पहलुओं को नियंत्रित किया जाता है, जिसमें फसल उत्पादन के विभिन्न चरणों के कुशल कार्यान्वयन की आवश्यकता होती है। अतः फसल उत्पादन प्रबंधन (Crop production management) के अंतर्गत पोषकों, सिंचाई तथा कृषि पैटर्न का प्रबंधन आता है।
फसल उत्पादन हेतु कृषि में प्रयुक्त विभिन्न प्रक्रम निम्नवत् हैं -

जुताई या मिट्टी तैयार करना

  • फसल उगाने से पहले मिट्टी तैयार करना (Preparation of Soil) प्रथम चरण होता है। इसमें मिट्टी को पलटना तथा इसे पोला बनाना शामिल है।
  • इससे जड़े भूमि में गहराई तक जा सकती हैं एवं पोली मिट्टी में गहराई में धँसी जड़े भी सरलता से श्वसन कर सकती हैं।
  • पोली मिट्टी, मिट्टी में रहने वाले केंचुओं और सूक्ष्मजीवों की वृद्धि करने में सहायता करती है। केंचुए किसानों के मित्र है, क्योंकि यह मिट्टी को और पलटकर पोला करते हैं तथा ह्यूमस बनाते हैं।
  • मिट्टी को उलटने-पटलने एवं पोला करने की प्रक्रिया जुताई (Ploughing) कहलाती है। इसे हल, कुदाली या कल्टीवेटर चला कर करते हैं।
  • यदि मिट्टी अत्यंत सूखी है, तो जुताई से पहले इसे पानी देने की आवश्यकता भी पड़ सकती है।
  • जुते हुए खेत में मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले भी हो सकते हैं। इन्हें एक पाटल की सहायता से तोड़ना आवश्यक है।
  • बुआई एवं सिंचाई के लिए खेत को समतल करना आवश्यक है। यह कार्य पाटल द्वारा किया जाता है।
  • कभी-कभी जुताई से पहले खाद दी जाती है। इससे जुताई के समय खाद मिट्टी में भली-भाँति मिल जाती है। बुआई से पहले खेत में पानी दिया जाता है।

बुवाई

  • इस चरण में गीली, नमी युक्त मृदा में बीजों को बोया जाता है।
  • बोने से पहले अच्छी गुणवत्ता वाले साफ एवं स्वस्थ बीजों को बोया जाता है।
  • इसके लिए किसान अधिक उपज देने वाले बीजों को प्राथमिकता देता है।
  • बुवाई के लिए वर्तमान में ट्रैक्टर संचालित 'सीड ड्रिल' का उपयोग करते हैं।
  • पौधों को अत्यधिक घने होने से रोकने के लिए बीजों के बीच उचित दूरी होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इससे पौधों को सूर्य का प्रकाश, पोषक एवं जल पर्याप्त मात्रा में प्राप्त होता है। अधिक घनेपन को रोकने के लिए कुछ पौधों को निकाल कर हटा दिया जाता है।

पोषक प्रबंधन

  • जंतु के समान पौधों को भी वृद्धि के लिए पोषक पदार्थों (Nutrients) की आवश्यकता होती है। पोषक पदार्थ अकार्बनिक तत्व होते हैं, जो पौधों को हवा, पानी तथा मिट्टी से प्राप्त होते हैं। पौधों के लिए 16 पोषक पदार्थ आवश्यक हैं।
  • वृहत् पोषक तत्व (Macronutrients) (अधिक मात्रा में आवश्यक) नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, सल्फर।
  • सूक्ष्म पोषक तत्व (Micronutrients) (कम मात्रा में आवश्यक) आयरन, मैंगनीज, बोरान, जिंक, कॉपर, मॉलिब्डेनम, क्लोरीन। इनमें से किसी भी पोषक तत्व की कमी के कारण पौधों की (कार्यिकी) प्रक्रियाओं सहित जनन, वृद्धि तथा रोगों के प्रति प्रवृत्ति (प्रतिरोधकता) पर प्रभाव पड़ता है।

खाद एवं उर्वरक

खाद और उर्वरक प्राकृतिक या संश्लेषित तत्व होते हैं जो उपजाऊ फसलों की वृद्धि और उत्पादन में मदद करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। खाद पौधों को आवश्यक पोषक तत्व और मिट्टी की उर्वरता प्रदान करती है, जबकि उर्वरक पौधों को पोषण सामग्री प्रदान करते हैं। खाद की प्रमुख स्रोत में गोबर, कंपोस्ट, खाद्य अपशिष्ट, ग्रीन मैन्योर और विभिन्न खाद्य पदार्थ शामिल हैं। इनमें विभिन्न पोषक तत्व जैसे नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश और मिनरल्स मौजूद होते हैं, जो पौधों के उत्पादन के लिए आवश्यक होते हैं। उर्वरक आमतौर पर नाइट्रोजन, पोटाश, फॉस्फेट और मिनरल्स के रूप में उपलब्ध होते हैं। ये पोषण सामग्रियाँ पौधों के विकास को बढ़ावा देती हैं और उन्हें स्वस्थ रखती हैं। खाद और उर्वरक का सही मात्रा में उपयोग किया जाना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह पौधों के समुदायिक विकास और उत्पादकता पर सीधा प्रभाव डालता है। खाद की अत्यधिक मात्रा से पौधों के परिणाम में हानि हो सकती है, वहीं कम मात्रा में खाद से पौधों की विकास धीमा हो सकता है।

खाद उर्वरक
खाद एक प्राकृतिक पदार्थ है, जो गोबर एवं पौधों के अवशेष के विघटन से प्राप्त होता है। उर्वरक एक मानव निर्मित लवण है।
खाद खेतों में बनाई जा सकती है। उर्वरक का उत्पादन फैक्ट्रियों में होता है।
खाद से मिट्टी को ह्यूमस प्रचुर मात्रा में प्राप्त होता है। उर्वरक से मिट्टी को ह्यूमस प्राप्त नहीं होता।
खाद में पादप पोषक तुलनात्मक रूप से कम होते हैं। उर्वरक में पादप पोषक; जैसे-नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम प्रचुरता में होते हैं।

1. खाद (Manure)

खाद (Manure) प्राकृतिक उर्वरक है। यह कार्बनिक पदार्थ जंतुओं के अपशिष्ट तथा पौधों के कचरे के अपघटन (Decomposition) से तैयार किया जाता है। खाद मिट्टी को पोषकों तथा कार्बनिक पदार्थों से परिपूर्ण करती है और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाती है। खाद बनाने की प्रक्रिया में प्रयुक्त विभिन्न जैविक पदार्थ के उपयोगों के आधार पर खाद को निम्न वर्गों में विभाजित किया जाता है -
  
  • (i) कम्पोस्ट तथा वर्मी कंपोस्ट (Compost and Vermi-compost) : वह प्रक्रिया जिसमें कृषि अपशिष्ट पदार्थों; जैसे-पशुधन का मलमूत्र (गोबर, आदि), सब्जी के छिलके एवं कचरा, जानवरों द्वारा परित्यक्त चारे, घरेलू कचरे, सीवेज कचरे, फेंके हुए खरपतवार, आदि को गड्‌ढों में विगलित (अपघटित) कर देते हैं, कंपोस्टीकरण (Composting) कहलाती है। कम्पोस्ट में कार्बनिक पदार्थ तथा पोषक बहुत अधिक मात्रा में होते हैं। जब कम्पोस्ट को केंचुओं द्वारा पौधे तथा जानवरों के अपशिष्ट पदार्थों के शीघ्र निरस्तीकरण की प्रक्रिया द्वारा बनाया जाता है, तो इसे वर्मी कम्पोस्ट कहते हैं।
  • (ii) हरी खाद (Green Manure) : फसल उगाने से पहले खेतों में कुछ पौधे; जैसे-पटसन, मूंग अथवा ग्वार, आदि उगा देते हैं, और तत्पश्चात् उन पर हल चलाकर खेत की मिट्टी में मिला दिया जाता है। ये पौधे हरी खाद में परिवर्तित हो जाते हैं, जो मिट्टी को नाइट्रोजन तथा फॉस्फोरस से परिपूर्ण करने में सहायक होते हैं। खाद के निम्नलिखित लाभ हैं -
    • खाद मृदा को पोषक तत्वों तथा कार्बनिक पदार्थों (ह्यूमस) से परिपूर्ण करती है।
    • यह मृदा की उर्वरता को बढ़ाती है तथा कीटनाशकों (Insecticide) व पीड़कनाशकों (Pesticides) के हानिकारक प्रभावों को कम करती है।
    • इसके कारण रेतीली मिट्टी में जल को धारण करने की क्षमता बढ़ जाती है। चिकनी मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों की अधिक मात्रा पानी को निकालने में सहायता करती है, जिससे जल एकत्रित नहीं होता है। जैविक कचरे (खाद) के प्रयोग द्वारा कोई भी उर्वरकों के उच्च प्रयोग से पर्यावरण की रक्षा कर सकता है।
    • खाद पौधों के कचरे के चक्रीकरण (Rotation) में सहायक होती है।

2. उर्वरक (Fertilisers)

उर्वरक (Fertilisers) व्यावसायिक रूप में तैयार रासायनिक पादप पोषक है। उर्वरक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस तथा पोटैशियम (NPK) की आपूर्ति करते हैं।

उर्वरकों के निम्नलिखित लाभ हैं -

  • ये आसानी से उपलब्ध हैं तथा इनका प्रयोग व संग्रह भी सरल है।
  • इनका प्रयोग उच्च उत्पादन के लिए होता है, परंतु ये आर्थिक दृष्टि से मंहगे होते हैं। इनके उपयोग से अच्छी कायिक वृद्धि (पत्तियाँ, शाखाएँ तथा फूल) होती है और स्वस्थ पौधों की प्राप्ति होती है।
उर्वरकों की निम्नलिखित हानियाँ है -

  • उर्वरक का उपयोग बड़े ध्यान से करना चाहिए और उसके सदुपयोग के लिए इसकी खुराक की उचित मात्रा, उचित समय तथा उर्वरक देने से पहले तथा उसके बाद की सावधानियों को अपनाना चाहिए। कभी-कभी उर्वरक अधिक सिंचाई के कारण पानी में बह जाते हैं और पौधे उसका पूरा अवशोषण नहीं कर पाते हैं। उर्वरक की यही अधिक मात्रा जल प्रदूषण का कारण होती है।
  • उर्वरक के सतत् प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता घटती है, क्योंकि कार्बनिक पदार्थ की पुनः पूर्ति नहीं हो पाती है। इससे सूक्ष्मजीवों एवं भूमिगत जीवों का जीवन चक्र अवरुद्ध होता है।
  • उर्वरकों के उपयोग द्वारा कम समय में फसलों का अधिक उत्पादन प्राप्त हो सकता है, परंतु ये कुछ समय पश्चात् मृदा की उर्वरता को हानि पहुँचाते हैं, जबकि खाद के उपयोग के लाभ दीर्घावधि तक होते हैं।

सिंचाई (Irrigation)

फसलों को विभिन्न विधियों; जैसे-नहरों, जलाशयों, कुओं, ट्यूबवेल, आदि द्वारा जल की आपूर्ति करने की प्रक्रिया सिंचाई (Irrigation) कहलाती है। भारत में अधिकांश खेती वर्षा पर आधारित होती है। अधिकांश क्षेत्रों में फसल की उपज, समय पर मानसून आने तथा वृद्धिकाल में उचित वर्षा होने पर निर्भर करती है। सिंचाई का समय एवं बारंबारता फसलों, मिट्टी एवं ऋतु में भिन्न होता है। गर्मी में पानी देने की बारंबारता अपेक्षाकृत अधिक होती है। जल संसाधन के प्रकार के आधार पर कृषि हेतु प्रयुक्त कुछ सामान्य सिंचाई के साधन निम्नवत् हैं -

1. कुएँ (Wells) : यह वहाँ बनाए जाते हैं, जहाँ सिंचाई के लिए भूमिगत जल उपलब्ध होता है। ये दो प्रकार के होते हैं -
  • (a) खुदे हुए कुएँ (Dug wells) इसके द्वारा भूमिगत जल स्तरों में स्थित पानी को एकत्रित किया जाता है।
  • (b) नलकूप (Tubewells) इसमें पानी पंप द्वारा गहरे जल स्तरों से निकाला जाता है।
2. नहरें (Canals) : यह सिंचाई का एक बहुत विस्तृत तथा व्यापक तंत्र हैं, जिसमें पानी एक या अधिक जलाशयों अथवा नदियों या बाँध से आता है। मुख्य नहर से निकली शाखाएँ विभाजित होकर खेतों में सिंचाई करती हैं।
  
3. नदी जल उठाव प्रणाली (River Lift Systems) : इस प्रणाली का प्रयोग उन क्षेत्रों में किया जाता है, जहाँ जलाशयों से कम पानी मिलने के कारण नहरों का बहाव अनियमित अथवा अपर्याप्त होता है। नदियों के किनारे स्थित खेतों में सिंचाई करने के लिए नदियों से सीधे ही पानी निकाला जाता है।
  
4. तालाब (Tanks) : ये छोटे जलाशय हैं, जो छोटे क्षेत्रों में बहे हुए पानी का संग्रह करके तालाब का रूप ले लेते हैं।
  
5. आधुनिक विधियाँ (Modern Techniques) : कृषि में पानी की उपलब्धि बढ़ाने के लिए आधुनिक विधियाँ; जैसे-वर्षा के पानी का संग्रहण तथा जल विभाजन का उचित प्रबंधन द्वारा उपयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत छोटे बाँध बनाकर भूमि के नीचे का जलस्तर बढ़ाया जाता है। ये छोटे बाँध वर्षा के पानी को बहने से रोकते हैं तथा मृदा अपरदन को भी कम करते हैं। पानी की कमी अथवा वर्षा की अनियमितता की स्थिति, सूखा (Drought) कहलाती है। वर्षा पर आधारित कृषि को सूखे से बहुत हानि होती है, विशेषतया उन क्षेत्रों में जहाँ पर किसान फसल उत्पादन में सिंचाई का उपयोग नहीं करते हैं और केवल वर्षा पर ही निर्भर रहते हैं।

सिंचाई की विधियाँ

कुओं, झीलों एवं नहरों में उपलब्ध जल को निकालकर खेतों तक पहुँचाने के तरीके विभिन्न क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न हैं।
  
  • सिंचाई की पारंपरिक विधि -   मवेशी अथवा मजदूर प्रयोग किए जाते हैं। अतः ये सस्ते हैं, परंतु ये कम दक्ष हैं। विभिन्न पारंपरिक तरीके निम्न हैं -
(a) मोट (घिरनी)
(b) चेन पंप
(c) ढेकली
(d) रहट (उत्तोलक तंत्र)

  • सिंचाई की आधुनिक विधि -  इन विधियों के द्वारा हम जल का उपयोग मितव्ययता से कर सकते हैं। सिंचाई की आधुनिक विधियाँ निम्न हैं -
(a) छिड़काव तंत्र (Sprinkler System) -  इस विधि का उपयोग असमतल भूमि के लिए किया जाता है जहाँ पर जल कम मात्रा में उपलब्ध होता है। ऊर्ध्व पाइपों (नलों) के ऊपरी सिरों पर घूमने वाले नोजल लगे होते हैं। ये पाइप निश्चित दूरी पर मुख्य पाइप से जुड़े होते हैं। जब पंप की सहायता से जल मुख्य पाइप में भेजा जाता है, तो वह घूमते हुए नोजल से बाहर निकलता है। इसका छिड़काव लॉन, कॉफी की खेती एवं कई अन्य फसलों के लिए अत्यंत उपयोगी है।

(b) ड्रिप तंत्र (Drip System) -  इस विधि में जल बूंद-बूंद करके सीधे पौधों की जड़ों में गिरता है। अतः इसे ड्रिप तंत्र कहते हैं। फलदार पौर्थो, बगीचों एवं वृक्षों को पानी देने का यह सर्वोत्तम तरीका है। इस विधि में जल व्यर्थ नहीं होता। अतः यह जल की कमी वाले क्षेत्रों के लिए एक वरदान है।

फसल पैटर्न (Cropping pattern)

फसल पैटर्न (Cropping pattern) का प्रयोग खेती हेतु भूमि के एक ही क्षेत्र का उपयोग करके अधिकतम लाभ प्राप्त करने हेतु किया जाता है। यह फसल का उत्पादन न होने या बहुत कम होना, रोग, आदि की संभावनाओं को कम करता है। इसके लिए फसलों को विभिन्न पैटर्न से उगाया जाता है। उनमें से कुछ निम्न हैं -

1. मिश्रित फसल (Mixed Cropping) : इसमें दो अथवा दो से अधिक फसलों को एकसाथ ही एक खेत में उगाते हैं; जैसे-गेहूं + चना अथवा गेहूँ सरसों अथवा मूँगफली + सूरजमुखी। इसके कुछ लाभ निम्नलिखित हैं इससे हानि होने की संभावना कम रहती है, क्योंकि एक फसल के नष्ट हो जाने पर भी दूसरी फसल के उत्पादन की आशा बनी रहती है।

2. अंतराफसलीकरण (Intercropping) : इसमें दो अथवा दो से अधिक फसलों को एकसाथ एक ही खेत में निर्दिष्ट पैटर्न पर उगाते हैं। कुछ पंक्तियों में एक प्रकार की फसल तथा उनके एकान्तर में स्थित दूसरी पंक्तियों में दूसरी प्रकार की फसल उगाते हैं। फसल का चुनाव इस प्रकार करते हैं कि उनकी पोषक तत्वों की आवश्यकताएँ भिन्न-भिन्न हो; उदाहरण-सोयाबीन मक्का अथवा बाजरा + लोबिया। यह उपलब्ध पोषकों के अधिकतम उपयोग को सुनिश्चित कर अच्छे परिणाम देता है। इसके द्वारा पीड़क व रोगों को एक प्रकार की फसल के साथ पौधों में फैलने से रोका जा सकता है।

3. फसल चक्र (Crop Rotation) : किसी खेत में क्रमवार पूर्व नियोजित कार्यक्रम के अनुसार विभिन्न फसलों के उगाने के चक्र को फसल चक्र कहते हैं। परिपक्वन काल के आधार पर विभिन्न फसल सम्मिश्रण के लिए फसल चक्र अपनाया जाता है। खेत में एक फसल बोई जाती है तथा इसकी कटाई के बाद उसी खेत पर दूसरी फसल बोई जाती है। इसके पश्चात् तीसरी फसल भी बोई जा सकती है।

फसल सुरक्षा प्रबंधन

खेतों में फसलों को खरपतवार, कीट-पीड़क, रोगों, आदि से सुरक्षा प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है। फसल सुरक्षा प्रबंधन द्वारा इनकी संभावनाओं को कम किया जाता है। यदि खरपतवार तथा पीड़कों को नियंत्रित नहीं किया जाता, तो वे फसलों को बहुत हानि पहुँचाते हैं। फसलों को हानि पहुँचाने वाले तत्व निम्न हैं -
  
  • खरपतवार (Weed) : यह कृषि योग्य भूमि में उगे अनावश्यक पौधे होते हैं, जो भोजन, स्थान तथा प्रकाश के लिए फसलों से स्पर्द्धा करते हैं; उदाहरण-गौखरु (जैथियम), गाजर घास (पार्थेनियम) व मोथा (साइरेनस रोटेंडस), आदि। खरपतवार भूमि से पोषक तत्व ग्रहण करते हैं, जिससे फसलों की वृद्धि कम हो जाती है। इसलिए अच्छी पैदावार के लिए प्रारंभिक अवस्था में ही खरपतवार को खेतों में से निकाल देना चाहिए। रसायनों के उपयोग से भी खरपतवार नियंत्रण किया जाता है, जिन्हें खरपतवारनाशी (Weedicide) कहते हैं; जैसे-2, 4-D। खेतों में इनका छिड़काव किया जाता है, जिससे खरपतवार पौधे नष्ट हो जाते हैं, परंतु फसल को कोई हानि नहीं होती।
  • कीट-पीड़क (Insect-Pest) : कीट-पीड़क फसल के स्वास्थ्य को प्रभावित कर उत्पादन को कम करते हैं। प्रायः कीट-पीड़क पौधों पर निम्न प्रकार से आक्रमण करते हैं; ये मूल, तने तथा पत्तियों को काट देते हैं; जैसे-टिड्डा, ये तने तथा फलों में छिद्र कर देते हैं; जैसे-तना छेदक लार्वा।

सूक्ष्मजीवों द्वारा पौधों में होने वाले कुछ सामान्य रोग

पादप रोग सूक्ष्मजीव संचरण का तरीका
नींबू कैंकर जीवाणु वायु
गेहूँ का रस्ट कवक वायु एवं बीज
भिंडी का पीत वायरस कीट


Note: 📢
उपरोक्त डाटा में कोई त्रुटि होने या आकड़ों को संपादित करवाने के लिए साथ ही अपने सुझाव तथा प्रश्नों के लिए कृपया Comment कीजिए अथवा आप हमें ईमेल भी कर सकते हैं, हमारा Email है 👉 upscapna@gmail.com ◆☑️

About the Author

A teacher is a beautiful gift given by god because god is a creator of the whole world and a teacher is a creator of a whole nation.

4 टिप्पणियां

  1. धन्यवाद श्रीमान इतने महत्वपूर्ण लेख को प्रस्तुत करने के लिए
    1. आपके शानदार टिप्पणी के लिए धन्यवाद श्रीमान
  2. Dear Sir! Agar aap Post ke sath qus-ans bhi laga dete to achcha hota, please apne next post mein kijiyega.
    1. जरूर अर्पित जी आपके फीडबैक के लिए धन्यवाद, इस टॉपिक से संबंधित Quiz जल्द ही प्रेषित किया जाएगा।
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