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मौर्य साम्राज्य (Mauryan Empire in Hindi)

मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय, यूनानी देवताओं डायनोसस एवं हेराक्लीज की पूजा करते थे, वस्तुतः इससे भगवान शिव एवं भगवान श्री कृष्ण की पूजा से तात्पर्य है।
मौर्य काल के इतिहास को समझने हेतु हमारी सहायता करने वाले पुरातात्विक एवं साहित्यिक साक्ष्यों की कमी नहीं है। इस काल को समझने हेतु हमारे पास अनेक रचनाएं, विदेशी यात्रियों के यात्रा वृतांत एवं उनके द्वारा किये गए रचनाओं के विवरण के साथ-साथ बौद्ध तथा जैन ग्रंथों में भी पर्याप्त उल्लेख मिलता है। चाणक्य का अर्थशास्त्र, सोमदेव का कथासरित्सागर, क्षेमेन्द्र की वृहत कथामंजरी तथा विशाखदत्त के मुद्राराक्षस से मौर्य काल के समाज व्यवस्था एवं राजतंत्र को समझा जा सकता है। मेगस्थनीज की पुस्तक 'इंडिका' के आधार पर प्लुटार्क तथा प्लिनी ने मौर्य काल के सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था को स्पष्ट किया है। मौर्यकालीन व्यवस्था की अन्य जानकारी हमें अशोक तथा रुद्रदामन के अभिलेखों तथा शिलालेखों से भी स्पष्टतः मिलती है। मौर्य काल के घटनाओं का विवरण हमें कुछ ग्रीक रचनाओं में भी मिलती है। आज इस लेख के माध्यम से आप मौर्य साम्राज्य के विषय से संबंधित प्रतियोगी परीक्षाओं हेतु उपयोगी तथ्यों अथवा घटनाओं के बारे में जानेंगे।

मौर्य साम्राज्य (Maurya Empire)

मौर्य शासकों की सूची
(List of Maurya Emperors)

संख्या शासक शासन काल
1 चन्द्रगुप्त मौर्य 322 ईसा पूर्व- 298 ईसा पूर्व
2 बिन्दुसार 298 ईसा पूर्व -272 ईसा पूर्व
3 अशोक 273 ईसा पूर्व -232 ईसा पूर्व
4 दशरथ मौर्य 232 ईसा पूर्व- 224 ईसा पूर्व
5 सम्प्रति मौर्य 224 ईसा पूर्व- 215 ईसा पूर्व
6 शालिसुक 215 ईसा पूर्व- 202 ईसा पूर्व
7 देववर्मन 202 ईसा पूर्व -195 ईसा पूर्व
8 शतधन्वन मौर्य 195 ईसा पूर्व 187 ईसा पूर्व
9 बृहद्रथ 187 ईसा पूर्व- 185 ईसा पूर्व


चन्द्रगुप्त मौर्य

विशाखदत्त ने 4वीं-5वीं शताब्दी में 'मुद्राराक्षस' नामक प्राचीन भारतीय नाटक की रचना की थी, जिसमें चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा मगध का राजसिंहासन प्राप्त कर मौर्य वंश के स्थापना के विषय में वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ से नंद वंश के पतन एवं मौर्य साम्राज्य के नींव के विषय में जानकारी मिलती है। इस ग्रंथ में चन्द्रगुप्त मौर्य को 'वृषल' की संज्ञा दी गई है। यूनानी लेखकों ने चन्द्रगुप्त मौर्य को 'एंड्रॉकोटस' एवं 'सेंड्रॉकोटस' आदि नामों से अभिहित किया है। यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर का दूत 'मेगस्थनीज' चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था, इसका वर्णन 'इंडिका' पुस्तक से मिलती है जिसका मूल लेखक 'मेगस्थनीज' है। मेगस्थनीज ने अपने ग्रंथ 'इंडिका' में तात्कालिक मौर्य साम्राज्य के आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था का विवरण प्रस्तुत किया है। मेगस्थनीज के विवरण से पता चलता है कि मौर्य काल में शांति एवं समृद्धि व्याप्त थी, जनता आत्मनिर्भर थी। मेगस्थनीज ने अपने ग्रंथ में मौर्य काल के तात्कालिक समाज को सात वर्गों में विभाजित किया है, इसके साथ ही दास प्रथा का अभाव और अकाल न पड़ने का वर्णन भी किया है। मेगस्थनीज के अनुसार भारतीय, यूनानी देवताओं डायनोसस एवं हेराक्लीज की पूजा करते थे, वस्तुतः इससे भगवान शिव एवं भगवान श्री कृष्ण की पूजा से तात्पर्य है।

बिन्दुसार

चंद्रगुप्त मौर्य के बाद उनका उत्तराधिकारी बिंदुसार बने। बिन्दुसार को अमित्रघात (शत्रु विनाशक) के नाम से भी जाना जाता है। बिंदुसार के अन्य नाम मद्रसार तथा सिंहसेन हैं। बिंदुसार आजीवक संप्रदाय को मानते थे। आजीवक संप्रदाय में कर्म की पूर्ण रूप से अवहेलना की गई थी। बिंदुसार के यूनानी शासक एंटियोकस से अच्छे कूटनीतिक सम्बंध थे। एंटियोकस ने इनके दरबार में डाईमेकस नामक दूत भेजा था। बिंदुसार ने एंटियोकस से मदिरा, सूखा अंजीर तथा दार्शनिक भेजने की माँग की थी किन्तु उसने मदिरा तथा सूखे अंजीर तो भेजे लेकिन दार्शनिक नहीं भेजा। तिब्बत के बौद्ध संन्यासी तारानाथ ने बिंदुसार को दो महासागरों के बीच की भूमि को जीतने वाला कहा अर्थात् प्रायद्वीपीय भारत को जीतने वाला शासक। दिव्यावदान के अनुसार, तक्षशिला में विद्रोह को बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने खत्म किया जो उस समय उज्जैन का वायसराय था।

अशोक महान
(273 ईसा पूर्व - 232 ईसा पूर्व)

अशोक का राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ था। अपने राज्याभिषेक के 8 वर्षों के बाद अशोक ने 261 ई.पू. में कलिंग पर आक्रमण किया। कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार से विचलित होकर अशोक ने युद्ध की नीति को त्याग दिया तथा शांति की नीति अपनाई, अन्य शब्दों में उसने भेरीघोष को धम्म घोष से स्थानांतरित किया। आगे चलकर उसने उपगुप्त के नेतृत्व में बौद्ध धर्म को अपनाया। अशोक के शासन में ही मोगलिपुत्त तिस्स ने 250 ई.पू. में पाटलिपुत्र में होने वाली तीसरी बौद्ध परिषद् की अध्यक्षता की। अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के हेतु श्रीलंका, दक्षिण भारत क्षेत्र, वर्मा, मध्य एशिया इत्यादि जगह पर अभियान भेजें। अशोक के शासनकाल में सुदूर दक्षिण के क्षेत्र छोड़कर लगभग सभी उपमहाद्वीप एकछत्र शासन के अंतर्गत आता था। उत्तरापथ (तक्षशिला), अवन्ति राष्ट्र (उज्जैन), प्राची (पाटलिपुत्र), कलिंग (तोसली) और दक्षिणापथ (सुवर्णगिरि) महत्वपूर्ण प्रांत थे।


मौर्य कालीन अर्थव्यवस्था

मौर्य शासन की अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन एवं वाणिज्य पर आधारित थी, जिसे सम्मिलित रूप से वार्ता कहा जाता था। भूमिकर (1/6) राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था। लोहे के यंत्रों एवं कृषि विस्तार के कारण मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई। कौटिल्य के अर्थशास्त्र एवं जैन धर्म से संबंधित पुस्तकों में अकाल का भी उल्लेख मिलता है किन्तु मेगस्थनीज के इंडिका पुस्तक में दिए गए विवरण के अनुसार, भारत में अकाल नहीं पड़ता था। सोहगौरा ताम्रलेख और महास्थान (बोगरा, बांग्लादेश) अभिलेख में अकाल के दौरान अपनाए जाने वाले उपायों का उल्लेख किया गया है। कृषि कार्यों में सिंचाई व्यवस्था हेतु चन्द्रगुप्त के अधिकारी पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। नगरों में बिक्री के लिए लाई जाने वाली वस्तुओं पर भी शुल्क लगाया जाता था। भूमि पर अधिकार राजा एवं कृषक दोनों का था। निजी भूमि से प्राप्त आय भाग कहलाती थी। राजकीय भूमि को सीताभूमि कहा जाता था। मौर्य साम्राज्य में कठोर दंड का प्रावधान था। कर चोरी करने वालों को मृत्युदंड की सजा होती थी। सामान्य कर की दर कुल उत्पादन के 6वें हिस्से के बराबर होती थी। लेन-देन के लिए प्रमुख रूप से चाँदी के आहत सिक्कों का प्रयोग किया जाता था। मुद्रा का उपयोग न केवल व्यापार बल्कि सरकार द्वारा अपने अधिकारियों को नगद भुगतान देने के रूप में भी किया जाता था। कर्मचारियों का वेतन 1 वर्ष में 48,000 पण से लेकर 60 पण तक होता था। कार्य के लिए रखे गए श्रमिकों को कर्मकार कहा जाता था। खनन, वन, नमक, शराब की बिक्री, हथियारों के निर्माण इत्यादि पर राज्य का एकाधिकार होता था। उपक भाग (1/5 एवं 1/3) कृत्रिम सिंचाई कर एवं प्रणय कर (1/3 से 1/4) आपातकालीन कर था। काश्तकार को उपवास एवं भू-स्वामी को क्षेत्रक कहा जाता था। कर मुक्त गाँवों को परिहारिका एवं जो गाँव सैनिक आपूर्ति करते उन्हें आयुधिका तथा जो गाँव कच्चे माल की आपूर्ति करते उन्हें कुप्य कहा जाता था।

अन्य कर
पकोदसन्त्रिरोधे सड़क पर गंदगी फैलाने पर कर
तरदेय पुल कर
वर्तनी सड़क कर
सेतु फल-फूल पर कर
हिरण्य नगर कर
विष्टि बेगार

मौर्यकालीन प्रशासनिक व्यवस्था

मौर्य कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में राजा शीर्ष पर होता था। कौटिल्य ने राजा को धर्मप्रवर्तक अर्थात् सामाजिक व्यवस्था का संचालक कहा है। मौर्य प्रशासन में शीर्षस्थ अधिकारी तीर्थ कहलाते थे। अधिकतर अधिकारियों को नगद वेतन दिया जाता था। मंत्री, पुरोहित, सेनापति तथा युवराज उच्चतम कोटि के अधिकारी थे, इन्हें उदारतापूर्ण पारिश्रमिक मिलता था। उच्चतम कोटि के अधिकारियों को 48 हजार पण की रकम मिलती थी, जो पण 3/4 तोले के बराबर चाँदी का सिक्का होता था। निचले दर्जे के अधिकारियों को कुल मिलाकर 60 पण मिलते थे, हालाँकि कुछ कर्मचारियों को महज दस-बीस पण ही दिए जाते थे। संदेश वाहक एक महत्त्वपूर्ण अधिकारी था। वह एक स्थान से दूसरी स्थान पर घूमता रहता और राजा के जासूस अधिकारियों के कार्यों पर दृष्टि रखते थे। केंद्रीय शासन में दो दर्जन से अधिक विभाग थे, जो कम-से-कम राजधानी के निकटवर्ती क्षेत्रों में सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण रखते थे।

प्रांतीय प्रशासन

मौर्य साम्राज्य अनेक प्रांतों में विभक्त था। प्रत्येक प्रांत एक-एक कुमार या आर्यपुत्र के अधीन होता था। कुमार या आर्यपुत्र राजवंश की ही किसी संतान को बनाया जाता था। प्रांत भी छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त थे। ग्रामांचल और नगरांचल दोनों में प्रशासन की व्यवस्था थी। मौर्य साम्राज्य पाँच बड़े प्रांतों में विभाजित था। ये प्रांत थे-उत्तरापथ, दक्षिणापथ, अवन्ति, कलिंग तथा प्राच्य प्रदेश। उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला, दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरि, अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी, कलिंग की राजधानी तोसली तथा प्राच्य प्रदेश की राजधानी पाटलिपुत्र थी। प्रांतो का विभाजन अनेक मंडलों में किया जाता था, मंडल जिलों में विभक्त थे, जिसे 'विषय' कहा जाता था। विषय का अधिकारी प्रादेशिक, रज्जुक तथा युक्तक होते थे। ग्राम प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी, जिसका प्रधान 'गामिक' होता था।

नगर प्रशासन

मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन का वर्णन किया है। नगर का प्रमुख अधिकारी एस्ट्रोनोमोई तथा जिले का अधिकारी एग्रोनोमोई था। पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 30 सदस्यों के समूह द्वारा चलाया जाता था। इसकी कुल 6 समितियाँ होती थीं तथा प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।

न्याय प्रशासन

मौर्यकाल में दीवानी न्यायालय 'धर्मस्थीय' तथा फौजदारी न्यायालय 'कंटकशोधक' कहा जाता था। 'धर्मस्थीय' न्यायालय का न्यायाधीश 'व्यावहारिक' तथा कंटकशोधन न्यायालय का न्यायाधीश 'प्रदेष्टा' कहलाता है। जिला स्तरीय न्यायालय का प्रमुख रज्जुक था। ग्रामीण स्तर पर ग्राम न्यायालय की व्यवस्था की गई थी। कौटिल्य के अनुसार, विधि के चार स्रोत; जैसे-धर्म, व्यवहार, चरित्र, राजाज्ञा थे।

सैन्य प्रशासन

यूनानी लेखक प्लिनी के अनुसार, चंद्रगुप्त की सेना में 6,00,000 पैदल सिपाही, 30,000 घुड़सवार और 9,000 हाथी थे। एक अन्य स्रोत में वर्णित है कि मौर्यों के पास 8,000 अश्वचालित रथ थे। मौर्यों के पास नौसेना भी थी। मेगस्थनीज के अनुसार, सैनिक प्रशासन के लिए तीस अधिकारियों की एक परिषद् थी, जो पाँच-पाँच सदस्यों की छह समितियों में विभक्त थी। ऐसा ज्ञात होता है कि पैदल, घुड़सवार, हाथी, रथ, नाव और सवारी सेना के संचालन की जिम्मेदारी 6 समितियों पर होती थी। मौर्य सेना, नंद सेना से लगभग तिगुनी थी। राजक्षेत्र और आय स्रोतों में बहुत अधिक वृद्धि होने के कारण ही ऐसा संभव हो पाया।

समिति कार्य
प्रथम समिति जल सेना की व्यवस्था
द्वितीय समिति यातायात एवं रसद की व्यवस्था
तृतीय समिति पैदल सैनिकों की देख-रेख
चतुर्थ समिति अश्वारोही सेना की देख-रेख
पंचम समिति गजसेना की देख-रेख
षष्टम समिति रथसेना की देख-रेख

गुप्तचर व्यवस्था

मौर्यकालीन प्रशासन तथा न्याय व्यवस्था को सुचारु रूप से संचालित करने के लिए 'गुप्तचर व्यवस्था' की स्थापना की गई थी। गुप्तचरों को 'गुप्त पुरुष' तथा इसके प्रधान अधिकारी को 'महामात्यापसर्प' कहा गया। अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का विवरण है- संस्था तथा संचार। संस्था संगठित होकर कार्य करती थी, जबकि संचार घुमक्कड़ थे। पुरुष गुप्तचर को सान्ती, तिष्णा एवं सरद कहा जाता था, जबकि स्त्री गुप्तचर को वृषाली, भिक्षुकी एवं परिव्राजक कहा जाता था।

मौर्यकालीन कला एवं स्थापत्य

मौर्य कला के अंतर्गत ही सबसे पहले पत्थर की इमारत बनाने का कार्य बड़े पैमाने पर प्रारंभ हुआ। चीन के बौद्ध यात्री फाह्यान ने पाटलिपुत्र में स्थित मौर्य राजमहल की भव्यता का विवरण प्रस्तुत किया था। पत्थर के स्तंभों के टुकड़े और उनके दूँठ (Stump) के प्रमाण आधुनिक पटना के कुम्हरार नामक स्थल से मिले हैं, जो 80 स्तंभों वाले विशाल भवन के अस्तित्व का संकेत देते हैं। मौर्यकालीन स्तम्भ पांडु रंगवाले (पीले रंग बाले) बलुआ पत्थर के एक ही टुकड़े का बना है, जिनका केवल शीर्ष भाग स्तंभों के ऊपर जोड़ा गया है और तराशे गए सिंह और सांड विलक्षण वास्तुशिल्प के प्रमाण हैं। मौर्य शिल्पियों ने बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए चट्टानों को काटकर गुफाएँ बनाने की परंपरा भी प्रारंभ की। इसका सबसे पुराना उदाहरण बराबर की गुफाएँ हैं, जो गया से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित हैं। मौर्यकाल में ही पूर्वोत्तर भारत में सर्वप्रथम पकी हुई ईंट का प्रयोग हुआ, इस काल में बनी पकी ईटों की संरचनाएँ बिहार और उत्तर प्रदेश में पाई गई हैं। मेगस्थनीज ने मौर्य राजधानी पाटलिपुत्र में बने लकड़ी के भवनों का उल्लेख किया है। उत्खनन से ज्ञात होता है कि लकड़ी के लट्ठों का प्रयोग बाढ़ और बाहरी आक्रमण से बचाव के लिए महत्वपूर्ण रक्षा-बाँध बनाने में किया गया था। सबसे पहले मौर्य काल में ही गंगा घाटी क्षेत्र में छल्लेदार कुएं प्रचलन में आए, जो कालांतर में साम्राज्य के केंद्रीय भाग से बाहर भी फैल गए। बांग्लादेश में जहाँ जिला बोगरा में मौर्य ब्राह्मी लिपि में महास्थान का अभिलेख पाया गया है, वहीं मिदनापुर जिले के बनगढ़ में उत्तरी काले पॉलिशदार मृ‌द्भांड मिले हैं। शिशुपालगढ़ (उड़ीसा) की बस्ती मौर्य काल की ईसा पूर्व तीसरी सदी की मानी जाती है और इसमें उत्तरी काले पॉलिशदार मृ‌द्मांड के साथ-साथ लोहे के उपकरण और आहत मुद्राएँ भी मिली हैं। मौर्यकाल में आंध्र और कर्नाटक में अनेक स्थानों पर लोहे के औजार और हथियार पाए गए हैं। मौर्य संपर्को के माध्यम से ही इस्पात बनाने की कला देश के कुछ भागों में विस्तृत हुई थी। इस्पात के औजारों के बनने से कलिंग के जंगल की सफाई और खेती के सुधरे तरीकों का प्रयोग होने लगा और इसके परिणामस्वरूप उस क्षेत्र में चेदि राज्य के उदय के लिए उपयुक्त स्थिति उत्पन्न हुई।

मौर्यकालीन सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति

मौर्यकालीन साम्राज्य अनेक वर्गों में विभाजित था। मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात वर्गों में विभाजित बताया है। मेगस्थनीज के विभाजन के अनुसार, भारत में दार्शनिक, किसान, शिकारी एवं पशुपालक, शिल्पी एवं कारीगर, योद्धा, निरीक्षक एवं गुप्तचर तथा अमात्य एवं सभासद नामक वर्ग थे। कौटिल्य ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में मौर्यकालीन समाज में अनेक वर्णशंकर जातियों का उल्लेख किया है, जिनमें अम्बष्ठ, निषाद, मागध, सूत वेण आदि शामिल थे। स्त्रियों को पुनर्विवाह एवं नियोग की अनुमति थी। संभ्रांत घर की स्त्रियाँ प्राय: घर के अंदर ही रहती थीं, जिसे कौटिल्य ने अनिष्कासिनी कहा है। मौर्यकाल में वैदिक धर्म ही प्रचलित था, किंतु कर्मकांड प्रधानतः अभिजात्य ब्राह्मण तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। कौटिल्य ने भारत के प्राचीन धर्म को त्रयीं धर्म कहा है, वहीं मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन धार्मिक व्यवस्था में डायोनिसस एवं हेराक्लीज की चर्चा की है, जिनकी पहचान क्रमश: शिव और कृष्ण से की गई है। पतंजलि के अनुसार, मौर्यकाल में देवमूर्तियों को बेचा जाता था, जिन्हें बनाने वाले शिल्पियों को देवताकारू कहा जाता था। अर्थशास्त्र के अनुसार, मौर्य साम्राज्य में ब्रह्मा, इंद्र, यम और स्कंद की मूर्तियाँ बनवाकर नगर के चारों द्वार पर स्थापित की जाती थीं।

मौर्य साम्राज्य के पतन के कारण

232 ई. पू. में अशोक के राज्य काल के समाप्त होते ही इसका विघटन प्रारंभ हो गया, इसके पतन के निम्नलिखित कारण थे।

ब्राह्मणों की प्रतिक्रिया

अशोक ने पशुपक्षियों के वध को निषिद्ध कर दिया और स्त्रियों में प्रचलित कर्मकांडीय अनुष्ठानों की खिल्ली उड़ाई, स्वभावतः इससे लोगों में विरोध की भावना बढ़ी। बौद्ध धर्म के और अशोक के यज्ञविरोधी रुख से ब्राह्मणों को अत्यधिक नुकसान हुआ, क्योंकि यज्ञों से मिलने वाली दान-दक्षिणा प्रभावित हो गई। अशोक की नीति भले ही सहनशील हो, मगर ब्राह्मणों में उसके प्रति विद्वेष की भावना जागने लगी। मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात् गठित नए राज्यों के शासक ब्राह्मण हुए। मध्य प्रदेश में और उससे पूर्व मौर्य साम्राज्य के अवशेषों पर शासन करने वाले शुंग और कण्व ब्राह्मण थे। पश्चिम दक्कन और आंध्र में चिरस्थायी राज्य स्थापित करने वाले सातवाहन भी अपने को ब्राह्मण मानते थे।

वित्तीय संकट

सेना और प्रशासनिक अधिकारियों पर होने वाले भारी खर्च के बोझ से मौर्य साम्राज्य के सामने वित्तीय संकट खड़ा हो गया। अशोक ने बौद्ध भिक्षुओं को अत्यधिक दान दिया, जिसके कारण राजकोष खाली हो गया, इससे मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ। मौर्य साम्राज्य की अंतिम अवस्था में अपने खर्च को पूर्ण करने के लिए मौर्यों को सोने की देव प्रतिमाएँ तक गलानी पड़ी थीं।

दमनकारी शासन

मौर्य साम्राज्य के टूटने का एक महत्त्वपूर्ण कारण था प्रांतों में दमनकारी शासन को लागू करना। बिंदुसार के शासन काल में तक्षशिला के नागरिकों ने दृष्टामात्यों अर्थात् दुष्ट अधिकारियों के कुशासन की कड़ी शिकायतें की थीं। अशोक के कलिंग अभिलेखों से प्रकट होता है कि प्रांतों में हो रहे अत्याचारों से अशोक चिंतित था उसने महामात्रों को आदेश दिया कि समुचित कारण के बिना वे नागरिकों को सताएँ नहीं। इसी दृष्टि से तोसली (कलिंग स्थित), उज्जैन तथा तक्षशिला में अधिकारियों के स्थानांतरण की परिपाटी चलाई गई थी।

दूरवर्ती क्षेत्र में नए ज्ञान की पहुँच

जब मगध साम्राज्य के विस्तार के फलस्वरूप भौतिक संस्कृति के तत्त्व मध्य भारत, दक्कन और कलिंग पहुँचे, तब गंगा के मैदान का वर्चस्व घटने लगा। जैसे-जैसे मध्य गंगा क्षेत्र से बाहर वाले प्रांतों में लोहे के औजारों का प्रयोग बढ़ता गया, वैसे-वैसे मौर्य साम्राज्य का पतन होता गया। नए ज्ञान की पहुँच के कारण मध्य भारत में शुंगों और कण्वों का कलिंग में चेदियों का और दक्कन में सातवाहनों का उदय हुआ।

देशी राज्यों का उदय

मौर्य साम्राज्य को पुष्यमित्र शुंग ने 185 ई. पू. में अंतिम रूप से नष्ट कर दिया। पुष्यमित्र शुंग ब्राह्मण होते हुए भी अंतिम मौर्य राजा वृहद्रथ का सेनापति था। पुष्यमित्र शुंग ने जनता के सामने वृहद्रथ की हत्या की और बलपूर्वक पाटलिपुत्र का राजा बना। शुंगवंशियों ने पाटलिपुत्र और मध्य भारत में शासन किया और ब्राह्मणीय जीवन पद्धति का प्रारंभ किया तथा वैदिक यज्ञ किए।


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उपरोक्त डाटा में कोई त्रुटि होने या आकड़ों को संपादित करवाने के लिए साथ ही अपने सुझाव तथा प्रश्नों के लिए कृपया Comment कीजिए अथवा आप हमें ईमेल भी कर सकते हैं, हमारा Email है 👉 upscapna@gmail.com ◆☑️

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