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प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत | Sources of Indian History in Hindi

अतीत को जानने की प्रवृत्ति मनुष्य में प्राचीनकाल से ही रही है। इतिहास इसी रूप में सृजित हुआ है। इसके अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन......

अतीत को जानने की प्रवृत्ति मनुष्य में प्राचीनकाल से ही रही है। इतिहास इसी रूप में सृजित हुआ है। इतिहास के अध्ययन के लिए जिन स्रोतों का उपयोग किया जाता है, उन्हें 'ऐतिहासिक स्रोत' (Historic Sources) कहा जाता है।

प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के स्रोतों में महत्त्वपूर्ण विविधता पाई जाती है। इन स्रोतों को तीन भागों में विभाजित किया गया है -

1. पुरातात्विक स्रोत

2. साहित्यिक स्रोत

3. विदेशी यात्रियों के विवरण

Sources of Indian History in Hindi

पुरातात्विक स्रोत क्या है?

पुरातात्विक स्रोत (Archaeological Sources), प्राचीन भारत को जानने का सर्वाधिक सक्षम एवं विश्वसनीय साधन माना जाता है। इसके अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियाँ, चित्रकला आदि सम्मिलित हैं। ऐसी वस्तुओं का अध्ययन करने वाला व्यक्ति पुरातत्वविद् (Archaeologist) कहलाता है। प्रमुख पुरातात्विक स्रोतों का वर्णन निम्न है -

💰 सिक्के (Coins)

  • सिक्कों (Coins) के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numismatics) कहते हैं। प्राचीन काल में ताँबे, चाँदी, सोने और सीसे के सिक्के बनते थे। 

  • भारतीय उपमहाद्वीप से प्राप्त सर्वाधिक प्राचीन सिक्कों को आहत सिक्के (Punch-Marked Coins) कहा जाता था, जो अधिकांश चाँदी तथा ताँबे से निर्मित थे। 

  • अधिकांश सिक्के चौकोर तथा कुछ वर्गाकार एवं गोलाकार थे। आहत सिक्के प्रथम शताब्दी ई.पू. में पंजाब तथा हरियाणा के कबीलाई गणराज्यों द्वारा जारी किए गए थे, जिसमें यौधेय गणराज्य प्रमुख था। 

  • प्राचीनकाल में पकाई गई मिट्टी के बने सिक्कों के साँचे बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। इनमें से अधिकांश साँचे कुषाण काल के अर्थात् ईसा की आरंभिक तीन सदियों के हैं। 

  • प्राचीनकालीन सिक्कों की निधियाँ वर्तमान में कोलकाता, पटना, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, मुंबई और चेन्नई के संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। 

  • प्राचीन भारत के आरंभिक सिक्कों पर तो कुछ के प्रतीक मिलते हैं, परंतु बाद के सिक्कों पर शासकों और देवताओं के नाम तथा तिथियाँ भी उल्लेखित हैं। 

  • प्राचीन भारत में पहली बार स्वर्ण सिक्के जारी करने का श्रेय हिंद-यवन (इंडो-ग्रीक) शासकों को दिया गया है, जिन्होंने दूसरी तथा पहली शताब्दी ई.पू. में पश्चिमोत्तर भारत पर शासन किया था। 

  • शासकों से अनुमति लेकर व्यापारियों और स्वर्णकारों की श्रेणियों (व्यापारिक संघों) ने भी प्राचीनकाल में अपने कुछ सिक्के चलाए थे, इससे शिल्पकारों और व्यापार की उन्नतावस्था सूचित होती है। 

  • सबसे अधिक सिक्के मौर्योत्तर काल के मिले हैं, जो विशेषतः सीसे, पोटिन, ताँबे, काँसे, चाँदी और सोने के हैं। 

  • गुप्त शासकों ने सबसे अधिक सोने के सिक्के जारी किए, इससे ज्ञात होता है कि व्यापार वाणिज्य की स्थिति गुप्तकाल में समृद्ध थी। इसके विपरीत गुप्तोत्तर काल के सिक्के बहुत कम मात्रा में प्राप्त हुए हैं, जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय व्यापार शिथिल हो गया था। 

  • सिक्कों पर राजवंशों और देवताओं के चित्र, धार्मिक प्रतीक और लेख भी अंकित हैं और ये सभी तत्कालीन कला और धर्म पर प्रकाश डालते हैं।

📝 अभिलेख (Inscription)

  • अभिलेखों (Rewards/Inscriptions) के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (Epigraphy) कहते हैं और इनकी तथा दूसरे पुराने दस्तावेजों की प्राचीन तिथि के अध्ययन को पुरालिपिशास्त्र (Palaeography) कहते हैं। 
  • अभिलेख मुहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों, ताम्रपत्रों, मंदिर की दीवारों, ईंटों तथा मूर्तियों पर भी मिलते हैं। 
  • समग्र देश में आरंभिक अभिलेख पत्थरों पर खुदे हुए प्राप्त हुए हैं, किंतु ईसा के आरंभिक शतकों में इस कार्य में ताम्रपत्रों का प्रयोग प्रारंभ हुआ। 
  • पत्थर पर अभिलेख लिखने का कार्य दक्षिण भारत में अत्यधिक प्रचलित रहा। वहाँ के मंदिरों की दीवारों पर भी स्थायी स्मारकों के रूप में भारी संख्या में अभिलेख खोदे गए हैं। 
  • वर्तमान में सबसे अधिक अभिलेख मैसूर में मुख्य पुरालेखशास्त्री के कार्यालय (Office of Chief Archaeologist) में संगृहीत हैं। अभिलेखों का प्रथम साक्ष्य तीसरी शताब्दी ई.पू. का है, जो प्राकृत भाषा तथा ब्राह्मी लिपि में उत्कीर्ण है। 
  • अभिलेखों में संस्कृत भाषा ईसा की दूसरी सदी से मिलने लगती है और चौथी-पाँचवीं सदी में इसका सर्वत्र व्यापक प्रयोग होने लगा है। अभिलेखों में प्रादेशिक भाषाओं का प्रयोग नौवीं दसवीं सदी से होने लगा। 
  • मौर्य, मोर्योत्तर और गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेख 'कार्पेस इंसक्रिप्शनम इंडिकेरम्' नामक ग्रंथमाला में संकलित करके प्रकाशित किए गए हैं। 
  • हड़प्पा संस्कृति के अभिलेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। ये संभवतः ऐसी किसी भावचित्रात्मक लिपि में लिखे गए हैं, जिसमें विचारों और वस्तुओं को चित्रों के रूप में व्यक्त किया जाता है। 
  • अशोक के शिलालेख ब्राह्मी लिपि में हैं, यह लिपि बाएँ से दाएँ लिखी जाती थी। अशोक के कुछ शिलालेख खरोष्ठी लिपि में भी हैं, जो दाएँ से बाएँ लिखी जाती थी, लेकिन पश्चिमोत्तर भाग के अतिरिक्त भारत में भिन्न-भिन्न प्रदेशों में ब्राह्मी लिपि का ही प्रचार रहा। 
  • पाकिस्तान और अफगानिस्तान में मिले अशोक के शिलालेखों में यूनानी और अरामाइक लिपियों का भी प्रयोग हुआ है। गुप्तकाल के अंत तक देश की प्रमुख लिपि ब्राह्मी लिपि ही रही। 
  • सबसे पुराने अभिलेख हड़प्पा संस्कृति की मुहरों पर मिलते हैं, ये लगभग 2500 ई.पू. के हैं। सबसे पुराने अभिलेख, जो पढ़े जा चुके हैं, वे ई.पू. तीसरी सदी के अशोक के शिलालेख है। 
  • अशोक के अभिलेखों को पढ़ने में सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप को सफलता मिली। यह बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा में उच्च पद पर आसीन अधिकारी था। 
  • समुद्रगुप्त का प्रयाग-प्रशस्ति अभिलेख राजा के गुणों और कीर्तियों का वर्णन करने वाला प्रशस्ति अभिलेख है।

💬 अभिलेखों के प्रकार (Types of Inscription)

    भारत के प्राचीन इतिहास को समझने में चार महत्त्वपूर्ण अभिलेख हमारी सहायता करते हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है-

    (i) अधिकारियों तथा जनता के लिए जारी किए गए सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक राज्यादेश एवं निर्णयों की सूचना देने वाले अभिलेख।

    (ii) अनुष्ठानिक अभिलेख, जो बौद्ध धर्म, जैन धर्म, वैष्णव, शैव इत्यादि संप्रदायों के अनुयायियों द्वारा भक्तिभाव से स्थापित स्तंभों, प्रस्तर फलकों, मंदिरों तथा प्रतिमाओं पर अंकित होते हैं।

    (iii) राजा तथा विजेताओं के गुणो तथा कीर्तियों का वर्णन करने वाली प्रशस्तियों को अभिलेखों के रूप में उत्कीर्ण किया जाता था।

    (iv) दान-पात्र, शिल्पियों तथा व्यापारियों द्वारा धर्मार्थ कार्यों को संपादित करने के लिए अभिलेखों का प्रयोग किया जाता था।

     

    साहित्यिक स्रोत क्या है?

    • पांडुलिपियों, अभिलेखों तथा पुरातत्व से ज्ञात जानकारियों के लिए इतिहासकार (Historians), स्रोत (Sources) शब्द का प्रयोग करते हैं। अतीत के अध्ययन के लिए अधिकांशतः पुस्तकें हाथ से लिखकर संरक्षित की गई थीं, जिसे पांडुलिपि (Manuscript) कहा जाता है।
    • भारत में पांडुलिपियाँ, भोजपत्रों और ताम्रपत्रों पर लिखी हुई प्राप्त हुई हैं, वहीं मध्य एशिया में ये मेषचर्म तथा काष्ठफलकों पर मिलती हैं। 
    • अधिकांश प्राचीन ग्रंथ धार्मिक विषयों पर हैं, हिंदुओं के धार्मिक साहित्य में वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि सम्मिलित हैं।
    • संपूर्ण भारत में संस्कृत की पुरानी पांडुलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, परंतु इनमें से अधिकांश दक्षिण भारत, कश्मीर तथा नेपाल से प्राप्त हुई हैं। 
    • साहित्यिक स्रोतों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है। 
      1. वैदिक साहित्य
      2. धार्मिक ग्रंथ
      3. धर्मेत्तर ग्रंथ

    - वैदिक साहित्य में वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद्, सूत्र साहित्य इत्यादि शामिल हैं। 

    - धार्मिक ग्रंथों में हिंदू, बौद्ध, जैन धर्मों से जुड़ी रचनाओं को स्थान दिया गया है। 

    - धर्मेत्तर ग्रंथों में प्राचीन भारत के रचनाकारों की रचनाओं को स्थान दिया गया है। प्रमुख साहित्यिक स्रोतों का वर्णन निम्न है -

    📚 वैदिक साहित्य (Vedic Literature)

    • वैदिक साहित्य में वेद सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। ऋग्वेद की रचना 1500-1000 ई.पू. के लगभग मानी जाती है, वहीं अथर्ववेद, यजुर्वेद, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों और उपनिषदों की रचना 1000-500 ई.पू. में हुई थी। 
    • ऋग्वेद में मुख्यतः देवताओं की स्तुतियाँ हैं, परंतु बाद के वैदिक साहित्य में स्तुतियों के साथ-साथ कर्मकांड, जादू टोना और पौराणिक आख्यान भी हैं। 
    • वैदिक मूल ग्रंथ का अर्थ समझने के लिए वेदांगों अर्थात् वेद के अंगभूत शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक था। ये वेदांग हैं - शिक्षा (उच्चारण-विधि), कल्प (कर्मकांड) व्याकरण, निरुक्त (भाषाविज्ञान), छंद और ज्योतिष। 
    • इनमें से प्रत्येक शास्त्र के चतुर्दिक प्रचुर साहित्य विकसित हुए हैं। यह साहित्य गद्य में नियम रूप में लिया गया है। संक्षिप्त होने के कारण ये नियम सूत्र कहलाते हैं। 
    • राजाओं के द्वारा और तीन उच्च वर्णों के धनाढ्य पुरुषों द्वारा अनुष्ठेय सार्वजनिक यज्ञों के विधि-विधान श्रोत सूत्रों में वर्णित हैं। 
    • गृहसूत्रों में जातकर्म (जन्मानुष्ठान), नामकरण, उपनयन, विवाह, श्राद्ध आदि घरेलू या पारिवारिक अनुष्ठानों का वर्णन मिलता है। 
    • श्रौतसूत्र और गृहसूत्र दोनों की रचना लगभग ईसा पूर्व 600-300 के आस-पास हुई थी। 
    • शुल्वसूत्र में यज्ञवेदी के निर्माण के लिए विधिक प्रकार के मापों का विधान वर्णित है। ज्यामिति और गणित के अध्ययन का आरंभ वहीं से होता है।

    🕉️ धार्मिक ग्रंथ (Religious Texts)

    • महाभारत, रामायण और प्रमुख पुराणों का अंतिम रूप से संकलन 400 ई.पू. के आस-पास हुआ प्रतीत होता है। 
    • महाभारत को व्यास की कृति माना जाता है, इससे दसवीं सदी ई. पू. से चौथी सदी ई. तक की स्थिति का आभास होता है। 
    • महाभारत में पहले 8800 श्लोक थे और इसका नाम जय संहिता था, जिसका अर्थ है- विजय संबंधी संग्रह ग्रंथ। 
    • कालांतर में महाभारत में श्लोकों की संख्या 24000 हो गई और यह भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ, क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा है। 
    • अंततः महाभारत में एक लाख श्लोक हो गए और तद्नुसार यह शतसहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा। वाल्मीकि रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो बढ़कर 12,000 हो गए और अंततः 24,000 श्लोक हो गए। 
    • रामायण की रचना संभवत ईसा पूर्व पाँचवीं सदी में शुरू हुई, तब से यह पाँच अवस्थाओं से गुजर चुकी है और इसकी पाँचवीं अवस्था ईसा की बारहवीं सदी में आई है। 
    • जैनों और बौद्धों के धार्मिक ग्रंथों में ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं का उल्लेख मिलता है। प्राचीनतम बौद्ध ग्रंथ पालि भाषा में लिखे गए थे, यह भाषा मगध अर्थात् दक्षिण बिहार में बोली जाती थी। 
    • बौद्ध ग्रंथों को अंततः ईसा पूर्व दूसरी सदी में श्रीलंका में संकलित किया गया था। बौद्ध धर्म से संबंधित धार्मिकेत्तर ग्रंथों में महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ वर्णित हैं। 
    • इनका विश्वास था कि गौतम के रूप में जन्म लेने से पहले बुद्ध 550 से भी अधिक पूर्व-जन्मों से गुजरे थे। बुद्ध के पूर्व जन्मों की वे कथाएँ जातक कहलाती हैं और प्रत्येक जातक कथा एक प्रकार की लोक कथा है। 
    • ये जातक ईसा पूर्व पाँचवीं सदी से दूसरी सदी ई. सन् तक की सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालते हैं। 
    • जैन ग्रंथों की रचना प्राकृत भाषा में हुई थी। ईसा की छठी सदी में गुजरात के वल्लभी नगर में इन्हें अंतिम रूप से संकलित किया गया था। 
    • जैन ग्रंथों से महावीर कालीन बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण में सहायता मिलती है। धर्मसूत्र, स्तुतियाँ तथा टीकाएँ मिलकर धर्मशास्त्र का निर्माण करती हैं। धर्मसूत्रों का संकलन 500-200 ई.पू. में हुआ था।

    📚 धर्मेत्तर साहित्य (Extra-religious Literature)

    • सूत्रलेखन का सबसे प्रसिद्ध उदाहरण पाणिनिकृत अष्टाध्यायी (व्याकरण) है, जो 400 ई.पू. के आस-पास लिखी गई थी। 
    • कौटिल्य का अर्थशास्त्र अत्यंत महत्त्वपूर्ण विधिग्रंथ है। यह पंद्रह अधिकरणों या खंडों में विभक्त है, जिनमें दूसरा और तीसरा खंड अधिक प्राचीन है। अर्थशास्त्र के अधिकरणों की रचना विभिन्न लेखकों ने की है, इस ग्रंथ को वर्तमान रूप ईसवीं वर्ष के आरंभ में दिया गया। 
    • अर्थशास्त्र के प्राचीनतम अंश मौर्यकालीन समाज और अर्थतंत्र का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इसमें प्राचीन भारतीय राजतंत्र तथा अर्थव्यवस्था के अध्ययन के लिए महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है। 
    • पतंजलि ने अष्टाध्यायी की टीका महाभाष्यम लिखी। पतंजलि द्वितीय शताब्दी ई. पू. का प्रमुख रचनाकार तथा वैयाकरण था। 
    • कालिदास ने अनेक काव्य और नाटकों की रचना की, जिनमें सबसे प्रसिद्ध अभिज्ञानशाकुंतलम् है। इसमें गुप्तकालीन उत्तरी और मध्य भारत का सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन परिलक्षित होता है। 
    • दक्षिण भारत में संगम साहित्य का संकलन ईसा की आरंभिक चार सदियों में हुआ, हालाँकि इनका अंतिम संकलन छठी सदी में हुआ था। संगम साहित्य के पद्य 30,000 पंक्तियों में मिलते हैं, जो आठ एट्टत्तोकै अर्थात् आठ संकलनों में विभक्त हैं। 
    • पद्य सौ-सौ के समूहों में संगृहीत हैं; जैसे पुरनानूरु (बारह के चार शतक) आदि। मुख्य दो समूह हैं-पटिनेडिकल पट्टिनेनकील कणक्कु (अठारह निम्न संग्रह), और पत्त पाट्ट (दस गीत)। 
    • संगम ग्रंथ वैदिक ग्रंथों से विशेषकर ऋग्वेद से, भिन्न प्रकार के हैं, ये धार्मिक ग्रंथ नहीं हैं, बल्कि ये लौकिक कोटि के अंतर्गत हैं। 
    • संगम साहित्य की तुलना होमर-युग के वीरगाथा काव्यों से की जा सकती है, क्योंकि इनमें भी युद्धों और योद्धाओं के वीर-युग का चित्रण है। 
    • संगम ग्रंथों में उल्लिखित चेर राजाओं के नाम दानकर्ताओं के रूप में ईसा की पहली और दूसरी सदी के दानपत्रों में भी आए हैं।

    प्राचीन भारत की प्रमुख रचनाएँ

    रचनाएँ रचनाकार
    हर्षचरित बाणभट्ट
    मिताक्षरा विज्ञानेश्वर
    मृच्छकटिकम शूद्रक
    मिलिंद पन्हो नागसेन
    मुद्राराक्षस विशाखदत्त
    देवीचंद्रगुप्तम विशाखदत्त
    अभिज्ञानशाकुंतलम कालिदास
    रघुवंशम कालिदास
    ऋतुसंहारम कालिदास
    मालविकाअग्निमित्रम् कालिदास
    दायभाग जीमूतवाहन
    विक्रमांकदेव चरित विल्हण
    कीर्तिकौमुद्री सोमेश्वर
    उत्तर रामचरित भवभूति
    सिद्धांत शिरोमणि भास्कराचार्य
    प्रबंध चिंतामणि मेरुतुंग

    प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों के संबंध में विदेशी विवरण

    विदेशी यात्रियों ने प्राचीन भारत के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण विवरण दिया है, इसमें यूनान, रोम, चीन तथा अरब के यात्री शामिल हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है -

    👨‍💼 यूनान एवं रोम यात्रियों के विवरण

    • भारतीय स्रोतों में सिकंदर के आक्रमण की कोई जानकारी नहीं मिलती, उसके लिए पूर्णतः यूनानी स्रोतों पर आश्रित रहना पड़ता है। 
    • यूनानी लेखकों ने 326 ई.पू. में भारत पर आक्रमण करने वाले सिकंदर के समकालीन सैंड्रोकोटस (चंद्रगुप्त मौर्य) के नाम का उल्लेख किया है। चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में दूत बनकर आए मेगास्थनीज की इंडिका उन उद्धरणों के रूप में ही सुरक्षित है, जो अनेक प्रख्यात लेखकों की रचनाओं में आए हैं। 
    • इंडिका से मौर्यकालीन शासन व्यवस्था, सामाजिक तथा आर्थिक क्रियाकलापों के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है। 
    • ईसा की पहली और दूसरी सदियों के यूनानी और रोमन विवरणों से भारतीय बंदरगाहों का उल्लेख मिलता है और भारत तथा रोमन साम्राज्य के मध्य होने वाले व्यापार की वस्तुओं की भी जानकारी प्राप्त होती है। 
    • यूनानी भाषा में लिखी गई पेरिप्लस ऑफ द एरिथ्रियन सी और टॉलमी की ज्योग्राफी नामक पुस्तकों में प्राचीन भूगोल और वाणिज्य के अध्ययन के लिए प्रचुर सामग्री मिलती है। 
    • पेरिप्लस ऑफ द एरिश्चियन सी की रचना किसी अज्ञात लेखक ने 80 और 115 ई. के बीच में की थी। इस पुस्तक से लाल सागर फारस की खाड़ी और हिंद महासागर में होने वाले रोमन व्यापार की जानकारी मिलती है। 
    • प्लिनी की नेचुरलिस हिस्टोरिका ईसा की पहली सदी की है। यह लैटिन भाषा में है और इससे हमें भारत तथा इटली के मध्य होने वाले व्यापार की जानकारी मिलती है।

    🦹‍♂️ चीनी यात्रियों के विवरण

    • चीन से आने वाले यात्रियों ने बौद्ध विहारों तथा स्थलों का भ्रमण करते हुए महत्त्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की। 
    • फाह्यान (399-414 ई.) पहला चीनी यात्री था, जो चंद्रगुप्त द्वितीय (गुप्त शासक) के समय भारत आया था। 
    • फाह्यान ने अपनी रचना 'फू-को की' में तत्कालीन भारतीय समाज, धर्म तथा आर्थिक स्थिति का विवरण दिया है। 
    • इसने पाटलिपुत्र की यात्रा की तथा मौर्य शासक के राजदरबार के अवशेष की चर्चा की। 
    • ह्वेनसांग (629-645 ई.), हर्षवर्द्धन के शासनकाल में भारत आया था। इसकी रचना सीयूकी में तत्कालीन समाज का श्रेष्ठ विवरण मिलता है, इसे 'यात्रियों का राजकुमार' (Prince of Travelers) कहा जाता है। इसने भारत को इंटू (In-tue) अर्थात चंद्रमा का देश (Land of Moons) कहा है। 
    • इत्सिंग (670-695 ई.) ने अपनी भारत की यात्रा के दौरान अनेक महत्त्वपूर्ण घटनाओं का विवरण दिया है। इसके सामाजिक तथा धार्मिक विवरण अधिक प्रभावशाली हैं।

    👳🏻‍♂️ अरब यात्रियों के विवरण

    • अरब व्यापारियों तथा लेखकों, जिन्होंने भारत की यात्रा की, के विवरणों से पूर्व-मध्यकाल के भारतीय समाज तथा संस्कृति के विषय में जानकारी मिलती है। 
    • अलबरूनी तथा इब्न बतूता प्रमुख अरबी विद्वान् थे, जिन्होंने भारत की यात्रा कर विशिष्ट विवरणों को रचना के रूप में स्थान दिया। 
    • अलबरूनी ने 'किताब-उल हिंद' के माध्यम से भारत के समाज, संस्कृति तथा रहन-सहन का विशद् विवरण दिया। यह 11वीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में भारत आया था।

    आधुनिक इतिहास लेखन

    • ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के द्वारा 1776 ई. में सबसे पहले मनुस्मृति का अंग्रेजी अनुवाद ए कोड ऑफ जेंटू लॉज (A Code of Gentoo Laws) के नाम से कराया गया।
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    • 1784 ई. में बंगाल (कलकत्ता में) में 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' की स्थापना हुई थी। इसकी स्थापना सर विलियम जोंस (1746-1794 ई.) ने की थी। इन्होंने 1789 ई. में अभिज्ञानशाकुंतलम् का अंग्रजी में अनुवाद किया।
    • 1785 ई. में विल्किंस ने हिंदुओं के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ भगवतगीता का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। विलियम जोंस ने यह प्रतिपादित किया कि मूलतः यूरोपीय भाषाएँ संस्कृत और ईरानी भाषाओं से बहुत ही मिलती हैं।
    • भारतीय विद्या के अध्ययन को सबसे अधिक जर्मनी के फ्रेडरिक मैक्समूलर (1823-1902) ने बढ़ावा दिया। उनका अधिकांश जीवन इंग्लैंड में व्यतीत हुआ था।
    • मैक्स मूलर के संपादकत्व में विशाल संख्या में प्राचीन धर्मग्रंथों का अनुवाद किया गया। ये अनुवाद सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट (The Secred Books of East) सीरीज में कुल मिलाकर पचास खंडों में प्रकाशित हुए। 
    • विंसेंट ऑर्थर स्मिथ (1843-1920) ने 1904 में अर्ली हिस्ट्री ऑफ इंडिया नामक पुस्तक लिखी। यह प्राचीन भारत का पहला सुव्यवस्थित इतिहास था।
    • आर. जी. भंडारकर ने सातवाहनों के दक्कन के इतिहास का और वैष्णव एवं अन्य संप्रदायों के इतिहास का पुनर्निर्माण किया।
    • समाज सुधारक पांडुरंग वामन काणे (1880-1972 ई.) ने हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र नामक पुस्तक लिखी, जिसे सामाजिक नियमों और आचारों का विश्वकोश माना जाता है।
    • राजेंद्र लाल मित्र (1822-1891 ई.) ने अनेक महत्त्वपूर्ण मूल वैदिक ग्रंथों को प्रकाशित किया तथा इंडो-आर्यंस (Indo-Aryans) पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में इन्होंने प्राचीन भारतीय समाज को तर्कनिष्ठ दृष्टि से देखा।
    • पुरालेखविद् रामकृष्ण गोपाल भंडारकर (1875-1950 ई.) ने अशोक तथा प्राचीन भारत की राजनीतिक संस्थाओं पर पुस्तकें प्रकाशित कीं। इन्होंने प्राचीन भारत के सामाजिक तथा राजनीतिक इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए विभिन्न स्रोतों का समायोजन किया।
    • आर. सी. मजूमदार (1888-1980) ने हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपल में हिंदू पुनर्जागरणवाद का विवरण प्रस्तुत किया।
    • इतिहासविद् नीलकंठ शास्त्री (1892-1975 ई.) हिस्ट्री ऑफ साउथ इंडिया लिखकर दक्षिण भारतीय इतिहास को उजागर किया।
    • के.पी. जयसवाल ने वर्ष 1924 में हिंदू पॉलिटी (Hindu Polity) नामक पुस्तक में भारतीय गणराज्यों के अस्तित्व को प्रमाणित किया।
    • ब्रिटिश इतिहासकार एवं संस्कृतविद् ए. एल. बाशम ने वर्ष 1951 में वंडर दैट वाज इंडिया (The Wonder that was India) नामक पुस्तक लिखी थी।
    • डी. डी. कोसांबी (वर्ष 1907-1966) ने 'एन इंट्रोडक्शन टु द स्टडी ऑफ इंडियन हिस्ट्री' (वर्ष 1957) नामक पुस्तक में भारत के इतिहास का विशद् वर्णन किया है। इनके विचार एंशिएंट इंडियन कल्चर एंड सिविलाइजेशन : ए हिस्टोरिकल आउटलाइन (1965) के द्वारा प्रकाशित हुए।

    प्राचीन भारतीय इतिहास का महत्त्व

    • भारत अनेकानेक मानव-प्रजातियों का संगम स्थल रहा है। प्राचीनकाल में प्राक्-आर्य, इंडो-आर्यंस, यूनानी, शक, हूण और तुर्क आदि अनेक प्रजातियों ने भारत को अपना आवास बनाया।
    • प्राचीन भारतीय इतिहास में पालि और संस्कृत के बहुत से शब्द, जो गंगा के मैदानों में विकसित भावनाओं और संस्थाओं के द्योतक हैं, वे लगभग 300 ई.पू. से 600 ई. के संगम नाम से प्रसिद्ध प्राचीनतम तमिल ग्रंथों में मिलते हैं।
    • भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार, हिंद-आर्य भाषाओं में प्रचलित फाहा, नौका, खंती आदि शब्द मुंडा भाषाओं से लिए गए हैं।
    • संपूर्ण देश को भरत नामक एक प्राचीन वंश के नाम पर भारतवर्ष (अर्थात् भरतों का देश) नाम दिया गया है और इसके निवासियों को भरत संतति कहा गया है।
    • हिमालय से कन्याकुमारी तक, पूर्व में ब्रह्मपुत्र की घाटी से पश्चिम में सिंधु-पार तक अपने राज्य का विस्तार करने वाले राजाओं का व्यापक रूप से यशोगान किया गया है, ऐसे राजा 'चक्रवर्तीन' कहलाते थे।
    • विदेशी सर्वप्रथम सिंधु तटवासियों के संपर्क में आए और इसलिए उन्होंने पूरे देश को ही सिंधु या इंडस (Indus) नाम दे दिया।
    • 'हिंद' शब्द संस्कृत के सिंधु से निकला है और कालक्रमेण यह देश इंडिया के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो इसके यूनानी पर्याय के बहुत निकट है, यह फारसी और अरबी भाषाओं में 'हिंद' नाम से विदित हुआ।
    • ईसा पूर्व तीसरी सदी में प्राकृत देशभर की संपर्क-भाषा (लिंगुआफ्रैंका) का कार्य करती थी।
    • उत्तर भारत में वर्ण-व्यवस्था या जाति प्रथा का जन्म हुआ, जो पूरे देश में व्याप्त हो गई।

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