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(Related PYQs)
भारतीय संविधान का ऐतिहासिक आधार और विकास
1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट
भारत संविधान के विकास का क्रम 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट से शुरू होता है। यह वह समय था जब ईस्ट इंडिया कंपनी बंगाल की राजनीतिक सत्ता को पूरी तरह से अपने हाथ में ले चुकी थी। दरअसल, ईस्ट इंडिया कंपनी 1600 ईस्वी में भारत में व्यापार करने के लिए आई थी। किन्तु प्लासी (1757) और फिर बक्सर (1764) के युद्ध जीतकर कंपनी ने भारत के सबसे समृद्ध प्रांत बंगाल पर अपना अधिकार कर लिया। साथ ही कंपनी ने बंगाल, बिहार, और उड़ीसा की दीवानी वसूलने का अधिकार भी प्राप्त कर लिया। ऐसे में ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियाँ नियंत्रित करना आवश्यक हो गया था। इसी पृष्ठभूमि में ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा 1773 का रेग्युलेटिंग एक्ट पारित किया गया। वस्तुतः 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट का मुख्य उद्देश्य कपंनी की गतिविधियों पर ब्रिटिश पार्लियामेंट का नियंत्रण स्थापित करना था।
इस समय तक कंपनी ने अब व्यापारिक इकाई से राजनीतिक इकाई का रूप धारण कर लिया था, अतः कंपनी का उद्देश्य अपने व्यापार के साथ-साथ राजनीतिक गतिविधियों को भी कुशल बनाने का हो गया था। 1773 के रेग्युलेटिंग में कई प्रावधान किए थे किन्तु भारतीय संविधान के विकास के दृष्टिकोण से इस एक्ट में दो प्रमुख प्रावधान शामिल थे -
- गवर्नर जनरल ऑफ बंगाल के पद का सृजन
- सुप्रीम कोर्ट की स्थापना
गवर्नर जनरल ऑफ बंगाल
- 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा न केवल गवर्नर जनरल आफ बंगाल के पद का सृजन किया गया था, बल्कि गवर्नर जनरल की सहायता हेतु चार सदस्यों वाली एक परिषद (काउंसिल) की भी व्यवस्था की गई।
- यही अवधारणा भारत के संविधान निर्माताओं ने भी भारत के संबंध में अपनाई। 1950 में लागू हुए मूल संविधान के अनुच्छेद 74 में उल्लेख किया गया कि राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी।
- गवर्नर जनरल आफ बंगाल को ही आगे चलकर 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा संपूर्ण भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया।
- 1858 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा भारत के गवर्नर जरनल को वायसराय का नाम दे दिया गया।
सुप्रीम कोर्ट की स्थापना
- 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट द्वारा कलकत्ता में 1774 में कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट की स्थापना की गई। सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के दूरगामी प्रभाव सिद्ध हुए, क्योंकि इससे पूर्व भारत में जो न्यायिक व्यवस्था प्रचलित थी, वह धार्मिक आधारों पर केन्द्रित थी।
- परंतु सुप्रीम कोर्ट की स्थापना के साथ भारत में पाश्चात्य न्याय की अवधारणा लागू हुई, जो कि लिखित कानूनों और निष्पक्ष न्याय पर आधारित थी।
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट
1784 का पिट्स इंडिया एक्ट के अंतर्गत बम्बई तथा मद्रास प्रांतों में बंगाल के गवर्नर जनरल जैसी व्यवस्था लागू की गई, किन्तु इन दोनों प्रांतों को बंगाल के गवर्नर जनरल के आधीन रखा गया। वस्तुतः वर्तमान में राज्यों पर केन्द्र का नियंत्रण इसी अवधारणा से प्रेरणा प्राप्त करता है।
1784 के पिट्स इंडिया एक्ट के अंतर्गत ही कंपनी के व्यापारिक मामलों की जांच हेतु 'निदेशक मण्डल' (कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स) और राजनैतिक मामलों के प्रबंधन के लिए 'नियंत्रण परिषद' (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) की स्थापना की गई।
इस एक्ट के अंतर्गत गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद में सदस्यों की संख्या 4 से घटाकर 3 कर दिया गया तथा मद्रास और बंबई को बंगाल के आधीन कर दिया गया।
1813 का चार्टर एक्ट
1813 का चार्टर एक्ट द्वारा कंपनी के व्यापारिक अधिकार को समाप्त कर भारत के व्यापार का मार्ग सभी के लिए खोल दिया गया। वर्तमान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 301 संपूर्ण भारत में निर्बाध रूप से व्यापार करने की स्वतंत्रता का प्रावधान करता है।
इस एक्ट के माध्यम से कंपनी के अधिकार पत्र को 20 वर्षों हेतु बढ़ दिया गया और इसके साथ ही कंपनी के भारत के साथ व्यापार के एकाधिकार को भी समाप्त कर दिया किन्तु चीन के साथ व्यापार एवं चाय के व्यापार के एकाधिकार को बरकरार रखा।
1813 के चार्टर एक्ट में ही ईसाई मिशनरियों को भारत में धर्म प्रचार करने की अनुमति दी गई। इस अधिनियम में पहली बार भारत में ब्रिटिश क्षेत्र की संवैधानिक स्थिति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया एवं भारत में शिक्षा हेतु प्रति वर्ष 1 लाख रुपये के खर्च का प्रावधान किया गया।
1833 के चार्टर एक्ट
1833 के चार्टर एक्ट द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल को संपूर्ण भारत का गवर्नर जनरल बना दिया गया। (अनुच्छेद 52: भारत का एक राष्ट्रपति होगा) गवर्नर जनरल को सैनिक, असैनिक तथा राजस्व संबंधी मामलों की सभी शक्तियाँ सौंप दी गई अर्थात् कार्यपालिका संबंधी सभी शक्तियाँ गवर्नर जनरल को दे दी गई।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 53 इसी प्रावधान से प्रेरणा ग्रहण करता है। अनुच्छेद 53 में ही कहा गया है कि संघ की कार्यपालिका शक्तियां राष्ट्रपति में निहित होगी तथा राष्ट्रपति संघ के रक्षा बलों का सर्वोच्च होगा। अनुच्छेद 112 के तहत राष्ट्रपति बजट को संसद के समक्ष रखवाता है।
1833 के चार्टर एक्ट द्वारा भारतीयों के विरुद्ध धर्म, वंश, जाति और रंग के आधार पर भेदभाव को समाप्त करने का प्रावधान किया गया। संविधान लागू होने के बाद अनुच्छेद 15 में इसी अवधारणा को ग्रहण किया गया है।
1853 के चार्टर एक्ट
इस एक्ट द्वारा कानून संबंधी प्रस्तावों पर गवर्नर जनरल की अनुमति अनिवार्य कर दी गई। वर्तमान में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 111 में प्रावधान है कि संसद द्वारा पारित कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के बाद ही कानून बनता है। सिविल सेवाओं की भर्ती एवं चयन हेतु खुली प्रतियोगिता व्यवस्था का शुभारंभ इसी एक्ट के अंतर्गत हुआ। (Article 315 = संघ लोक सेवा आयोग का गठन)
1857 की क्रांति के बाद 1858 में महरानी विक्टोरिया ने भारत के संबंध में कुछ महत्वपूर्ण घोषणायें की। इन घोषणाओं में आने वाले लगभग 90 वर्षों के शासन की झलक अवस्थित थी। इस घोषणापत्र में कुछ अहम बातें थी जिसने भारतीय संविधान की नींव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई -
- भारतीयों के साथ स्वतंत्र व्यवहार (अनुच्छेद 19 - स्वतंत्रता का अधिकार)
- भारत के प्राचीन रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का संरक्षण (अनुच्छेद 25 - धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार)
- सभी भारतीयों को निष्पक्ष रूप से कानून का संरक्षण (अनुच्छेद 14 = कानून के समक्ष समता)
- बिना किसी भेदभाव के योग्यता अनुसार भारतीयों को सरकारी नौकरी (अनुच्छेद 16 = सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के नियुक्ति)
1858 भारत शासन अधिनियम
1858 के भारत सरकार अधिनियम के द्वारा 'निदेशक मण्डल' (कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स) और 'नियंत्रण परिषद' (बोर्ड ऑफ कंट्रोल) को समाप्त करके उनके अधिकार ब्रिटिश मंत्रिमंडल को प्रदान कर दिया गया, इस कार्य क्षेत्र हेतु ब्रिटिश मंत्रिमंडल के उस सदस्य को भारत राज्य सचिव (Secretary of state for India) का पद प्रदान किया गया। इस अधिनियम द्वारा कंपनी के शासन का अंत हो गया तथा गवर्नर जनरल को अब 'वायसराय' का नाम दे दिया गया तथा 15 सदस्यीय 'भारत परिषद का गठन' किया गया जिनका वेतन भारतीय राजस्व से दिया जाता था। इस प्रकार 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट से लेकर 1858 के भारत सरकार अधिनियम ने भारतीय संविधान के निम्नलिखित प्रावधानों को आधार प्रदान किया-
- भारत का राष्ट्रपति
- कार्यपालिका शक्तियों का राष्ट्रपति में निहित होना
- राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद
- सुप्रीम कोर्ट की स्थापना तथा न्यायिक ढांचे का विकास निष्पक्ष न्याय की अवधारणा
- विधि के समक्ष समता
- धार्मिक स्वतंत्रता
1861 का भारत परिषद अधिनियम
1861 के अधिनियम द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया में भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत हुई, किन्तु आंशिक रूप से भारतीयों की भागीदारी 1833 में ही शुरू हो गई थी। कानून बनाने वाली संस्था में गैर-सरकारी सदस्यों के रूप में तीन भारतीयों को मनोनीत करने की शक्ति वायसराय को दे दी गई। वर्तमान में भारतीय संविधान अंतर्गत राष्ट्रपति को राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त है। 1861 के अधिनियम द्वारा अन्य प्रांतों के लिए भी विधान परिषदों के गठन का प्रावधान किया गया। जैसे- बंगाल, उत्तर-पश्चिमी सीमा प्रांत (वर्तमान का उत्तरप्रदेश) तथा पंजाब।
भारतीय संविधान के भाग 6 में राज्य विधानमंडलों के गठन का प्रावधान 1861 के इसी अधिनियम से ही प्रेरणा प्राप्त करता है। इसके अलावा मद्रास तथा बंबई प्रांतों को भी कानून बनाने के कुछ सीमित अधिकार दिए गए। आगे चलकर 1935 के भारत शासन अधिनियम द्वारा प्रांतों को कुछ निश्चित विषय सौंप दिए गए, जिन पर प्रांतों को कानून बनाने की सीधी शक्ति प्राप्त थी।
जब भारतीय संविधान लागू हुआ तो सातवीं अनुसूची के माध्यम से केन्द्र और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन की अवधारणा का आधार 1861 का भारत परिषद अधिनियम ही है। सातवीं अनुसूची में केन्द्र और राज्यों के बीच उन विषयों का स्पष्ट बंटवारा किया गया है जिन पर दोनों को कानून बनाने की शक्ति दी गई है।
1861 के अधिनियम की सबसे महत्वपूर्ण बात वायसराय को अध्यादेश जारी करने की शक्ति प्रदान करना था। इसी प्रावधान को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 123 के तहत भी अपनाया गया। इस प्रकार 1861 के अधिनियम की 5 प्रमुख बातें थी जिन्हें भारतीय संविधान में अपनाया गया है
- कानून निर्माण में भारतीयों की भागीदारी
- वायसराय को कुछ सदस्य मनोनीत करने का अधिकार
- प्रांतों (राज्य) के लिए विधानमंडल गठन करना
- प्रांतों को कानून बनाने की शक्ति प्रदान करना
- वायसराय की अध्यादेश जारी करने की शक्ति
1892 का भारत परिषद अधिनियम
इस अधिनियम द्वारा विधान परिषद के भारतीय सदस्यों को पहली बार बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार दिया गया। वर्तमान में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 112 बजट संबंधी प्रावधान करता है जिसमें विधायिका के सदस्य सरकार से प्रश्न पूछ सकते हैं तथा उस पर नियंत्रण रखते हैं। साथ ही विधान परिषद में राज्यों के अप्रत्यक्ष निर्वाचन के सिद्धांत को स्वीकार किया गया। वर्तमान में राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन भी अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
1909 का भारत परिषद अधिनियम (मार्ले-मिन्टों सुधार)
1909 के भारत परिषद अधिनियम का सबसे अहम प्रावधान यह था कि पहली बार वायसराय की परिषद (कार्यपालिका) में किसी भारतीय को शामिल किए जाने का निर्णय लिया गया। यह एक महत्वपूर्ण प्रावधान था, क्योंकि इससे पहले 1861, एक्ट द्वारा विधायिका में भारतीयों को शामिल करने का निर्णय लिया गया था, जबकि 1909 के अधिनियम द्वारा कार्यपालिका में भी भारतीयों को शामिल करने की प्रक्रिया शुरू हो गई। 'सत्येन्द्र प्रसाद सिन्हा' वायसराय की कार्यकारिणी परिषद में नियुक्त होने वाले प्रथम भारतीय थे।
इसके अलावा इंग्लैंड स्थित भारत सचिव की परिषद में भी दो भारतीय सदस्यों का नियुक्त करने की व्यवस्था की गई। इस प्रकार 1909 के अधिनियम द्वारा विधायिका के साथ कार्यपालिका में भी भारतीय सदस्यों के प्रतिनिधित्व की शुरुआत हो गई। इस अधिनियम के माध्यम से विधायिका के सदस्यों पर कुछ प्रतिबंध भी लगाए गए। जैसे कि वे न्यायालय में चल रहे किसी मामले पर सदन में बहस या विचार नहीं कर सकते थे। वर्तमान में भारत की न्यायिक व्यवस्था में यह प्रावधान लागू है कि न्यायालय में लंबित किसी विषय पर संसद में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।
इस अधिनियम की सबसे अहम बात सांप्रदायिक निर्वाचन की शुरुआत किया जाना था। सांप्रदायिक निर्वाचन से तात्पर्य था कि किसी क्षेत्र के लिए मुस्लिम उम्मीदवार ही चुनाव में खड़ा होगा तथा उसे सिर्फ मुस्लिम मतदाता ही मत देंगे, किन्तु इस निर्वाचन व्यवस्था के दो प्रमुख दोष थे-
- यह व्यवस्था सिर्फ मुसलमानों के लिए लागू की गई थी।
- इस व्यवस्था को अपनाने का मकसद ' फूट डालो और राज करो' की नीति को लागू करना था।
1861 से 1909 तक : एक निष्कर्ष
- विधायिका में भारतीयों की भागीदारी
- कार्यपालिका में भारतीयों की भागीदारी
- प्रांतों को कानून बनाने की शक्ति
- वायसराय को अध्यादेश जारी करने की शक्ति
- बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार
- न्यायालय में लंबित मामलों पर विधायिका में चर्चा नहीं
- सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था के अनुभव
1919 का भारत शासन अधिनियम (मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार)
वस्तुतः 1919 के अधिनियम में 1909 के प्रावधानों को ही अधिक स्पष्ट एवं व्यापक रूप प्रदान किया गया। इस अधिनियम ने पहली बार भारत में दोहरे शासन और प्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था को प्रारंभ किया।
प्रत्यक्ष निर्वाचन के अंतर्गत लोगों को वोट देने का अधिकार प्रदान किया गया, यद्यपि यह अधिकार निष्पक्ष रूप से न होकर शिक्षा, संपत्ति एवं कर के आधार पर दिया गया था। प्रत्यक्ष निर्वाचन की इस व्यवस्था द्वारा प्रांतों में आंशिक एवं कम उत्तरदायी सरकार की स्थापना का प्रारंभ हुआ। यहीं से उत्तरदायी सरकार की अवधारणा का भारत में विकास हुआ।
दोहरे शासन के अंतर्गत, केन्द्र तथा प्रांतों के संबंध में कानून बनाने के विषयों का अधिक स्पष्ट रूप से विभाजन कर दिया गया। प्रांतों को और ज्यादा शक्तियां प्रदान की गई तथा उन पर केन्द्रीय नियंत्रण को थोड़ा कम कर दिया गया। इस अधिनियम द्वारा प्रांतों को जो विषय प्रदान किए गए थे, उन्हें पुनः दो भागों में बांट दिया गया -
- हस्तांतरित विषय
- आरक्षित विषय
हस्तांतरित विषयों का शासन गवर्नर (वर्तमान का राज्यपाल) के हाथों में होता था। गवर्नर इन विषयों पर अपनी परिषद विधायिका की सहायता से नियम बनाता था। वहीं आरक्षित विषयों के संबंध में भी शक्तियां तो गवर्नर के पास ही थी, किन्तु इन विषयों पर वह अपनी कार्यपालिका की सहायता से नियम बनाता था। प्रांतीय शासन की इस दोहरी व्यवस्था को ही 'वैध शासन' कहा गया।
इस अधिनियम द्वारा सिखों, भारतीय ईसाईयों, आंग्ल- भारतीयों और यूरोपियों के लिए भी पृथक निर्वाचन (सांप्रदायिक निर्वाचन) का विस्तार कर दिया गया। 1919 के अधिनियम द्वारा सिविल सेवकों की भर्ती के लिए लोक सेवा आयोग के गठन का एक और महत्वपूर्ण प्रावधान किया गया।
1926 में केन्द्रीय लोक सेवा आयोग का गठन किया गया, जोकि वर्तमान के UPSC का ही प्रारंभिक रूप है। इसके अलावा इस अधिनियम द्वारा पहली बार राज्यों का बजट केन्द्र से अलग किया गया। अब राज्य विधानमंडल अपने राज्य के संबंध में बजट पास कर सकते थे। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 202 से 207 राज्य विधानमंडलों को अपने राज्य के संबंध में बजट बनाने तथा उसे पारित करने संबंधी प्रावधान उपलब्ध कराता है।
1935 का भारत शासन अधिनियम
इस अधिनियम का भारतीय संविधान पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधान इसी अधिनियम से लिए गए हैं।
अखिल भारतीय संघ
- इस अधिनियम द्वारा अखिल भारतीय संघ की स्थापना का प्रावधान किया गया।
- इसके तहत केन्द्र को संघ की तरह स्वीकार किया गया तथा देशी रियासतों तथा प्रांतों को संघ की इकाईयाँ माना गया।
- प्रांतों का संघ में शामिल होना अनिवार्य था किन्तु देशी रियासतों के लिए यह अनिवार्य नहीं था।
- यह देशी रियासतों की इच्छा पर छोड़ दिया गया कि वे खुद को संघ में शामिल करें अथवा नहीं? हालांकि इस व्यवस्था को लागू नहीं किया गया। क्योंकि देशी रियासतों ने अखिल भारतीय संघ में शामिल होने से इनकार कर दिया था। जब संविधान निर्माताओं द्वारा भारतीय संविधान का निर्माण किया जा रहा था तो उन्होंने 1935 के अखिल भारतीय संघ के प्रावधान को भारतीय संविधान में भी शामिल किया।
- इस व्यवस्था में केन्द्र सरकार को संघ तथा राज्यों का संघ की इकाई के रूप में घोषित किया गया। भारतीय संविधान का पहला अनुच्छेद इसी व्यवस्था पर आधारित है। राज्यों को संघ से अलग होने का कोई अधिकार नहीं दिया गया, ताकि संघीय व्यवस्था को मूर्त रूप दिया जा सके।
- अनुच्छेद 1 के तहत भारतीय संघ की व्याख्या करते हुए डा. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा कि "भारतीय संघ राज्यों के बीच किसी समझौते का परिणाम नहीं है और राज्यों को संघ से अलग होने का अधिकार नहीं है।"
शक्तियों का विभाजन
- इस अधिनियम द्वारा लिखित रूप से केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन कर दिया गया। शक्तियों के विभाजन के संबंध में तीन सूचियों का निर्माण किया गया संघ सूची, राज्य सूची, समवर्ती सूची अवशिष्ट शक्तियां वायसराय को सौंप दी गईं। भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस प्रावधान को भारतीय संविधान में ज्यों का त्यों अपना लिया। भारतीय संविधान की सातवीं अनुसूची शक्ति विभाजन से संबंधित है।
- संघ सूची पर संसद, राज्य सूची पर राज्य विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार है अनुच्छेद 246 समवर्ती सूची पर संसद तथा राज्य विधानमंडल दोनों कानून बना सकते हैं किन्तु गतिरोध होने पर संसद का कानून मान्य होगा।
- भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस संबंध में एक छोटा सा बदलाव किया। 1935 के अधिनियम में अवशिष्ट शक्तियां वायसराय को सौंपी गई थी किन्तु वर्तमान भारतीय संविधान में अवशिष्ट शक्तियां संसद को सौंपी गई हैं। (अनुच्छेद 248)
प्रांतों में द्वैध शासन की समाप्ति
- 1919 के अधिनियम द्वारा प्रांतों में शुरू द्वैध शासन को 1935 के अधिनियम द्वारा समाप्त कर दिया गया।
- जब भारतीय संविधान का निर्माण किया जा रहा था तो प्रांतों के संबंध में संविधान निर्माताओं के समक्ष दो विकल्प थे।
- पहला विकल्प 1919 के अधिनियम का था जिसके तहत प्रांतों में वैध शासन को अपनाया गया था। दूसरा विकल्प 1935 के अधिनियम का था जिसमें प्रांतों में वैध शासन की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।
- इस संबंध में भारतीय संविधान निर्माताओं ने 1935 के विकल्प को अपनाना ही श्रेष्ठ समझा। क्योंकि प्रांतों में वैध शासन को अपनाने से जटिलता आ जाती थी। इसके अलावा भारत एक नया-नया स्वतंत्र हुआ देशथा जिसकी अधिकांश जनता अशिक्षित थी। वह इस जटिल प्रक्रिया को बेहतर ढंग से समझने की स्थिति में नहीं थी।
प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना
- इस अधिनियम का सबसे मुख्य प्रावधान प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना करना था। अब राज्य के गवर्नर की परिषद में वही सदस्य शामिल होते थे जो कि विधानपरिषद में निर्वाचित होकर आते थे। गवर्नर की परिषद के यह सदस्य (मंत्री) विधानपरिषद के प्रति उत्तरदायी होते थे।
- भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस व्यवस्था को व्यापक रूप से स्वीकार किया तथा राज्यों के साथ- साथ केन्द्र के संबंध में भी इस व्यवस्था को अपनाया।
- वर्तमान में राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए जो मंत्रिपरिषद होती है, वह संसद से ही चुने जाते हैं। अर्थात् प्रत्येक मंत्री को संसद के किसी एक सदन का सदस्य होना अनिवार्य है। इस व्यवस्था का सबसे अधिक लाभ यह है कि कार्यपालिका अर्थात् मंत्रिपरिषद अपने प्रत्येक निर्णय के लिए संसद के प्रति जवाबदेह होती है।
प्रांतों में द्विसदनीय विधायिका
- 1935 के अधिनियम द्वारा छः प्रांतों में दो सदनों वाली विधायिका की व्यवस्था की गई। वर्तमान में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 169 राज्य विधानमंडल के दूसरे सदन (विधान परिषद) के गठन की व्यवस्था करता है।
- 1935 के अधिनियम द्वारा दलितो, महिलाओं और मजदूर वर्ग के लिए अलग से निर्वाचन की व्यवस्था कर दी गई।
- हालांकि भारतीय संविधान-निर्माताओं ने इस अवधारणा को तो नहीं अपनाया किन्तु इससे प्रेरणा अवश्य प्राप्त की। वर्तमान में लोकसभा में SC/ST एवं महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।
- 73 वें एवं 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा स्थानीय निकायों में भी SC/ST के लिए लोक सभा में आरक्षण का प्रावधान किया गया है। संविधान (106वाँ संशोधन) अधिनियम, 2023, विधेयक लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिये एक-तिहाई सीटें आरक्षित करता है। यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित सीटों पर भी लागू होगा।
इस प्रकार 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट से लेकर 1935 के भारत शासन अधिनियम ने भारतीय संविधान के निम्नलिखित प्रावधानों को आधार प्रदान किया -
- भारत का राष्ट्रपति
- कार्यपालिका शक्तियों का राष्ट्रपति में निहित होना
- राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए मंत्रिपरिषद
- सुप्रीम कोर्ट की स्थापना तथा न्यायिक ढांचे का विकास
- निष्पक्ष न्याय की अवधारणा
- विधि के समक्ष समता
- धार्मिक स्वतंत्रता
- राष्ट्रपति को राज्यसभा में 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार
- प्रांतों के लिए विधान परिषद गठन करने का प्रावधान
- प्रांतों को कानून बनाने की शक्ति प्रदान करना
- केन्द्र और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन की अवधारणा (Indirectly)
- राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति
- राज्य सभा के सदस्यों का अप्रत्यक्ष निर्वाचन
- विधायिका के साथ कार्यपालिका में भी भारतीय सदस्यों के प्रतिनिधित्व की शुरुआत
- न्यायालय में लंबित किसी विषय पर संसद में कोई चर्चा नहीं किए जाने का प्रावधान
- बजट पर बहस करने और प्रश्न पूछने का अधिकार
- सांप्रदायिक निर्वाचन व्यवस्था के अनुभव
- भारत में दोहरे शासन और प्रत्यक्ष निर्वाचन की शुरुआत
- प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना
- केन्द्र के साथ ही प्रांतों के लिए भी लोक सेवा आयोग के गठन की व्यवस्था
- राज्यों को अपना बजट अलग से पारित करने का अधिकार
- अखिल भारतीय संघ की संकल्पना का प्रतिपादन
- केन्द्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन
- प्रांतों में वैध शासन की समाप्ति
- प्रांतों में दो सदनों वाली विधायिका की व्यवस्था
- आरक्षण की संकल्पना
1935 के बाद राजनीतिक घटनाक्रम
- 1935 का अधिनियम पारित होने के बाद भारत के राजनीतिक घटनाक्रम में तेजी से परिवर्तन हुए।
- 1942 में गाँधीजी के नेतृत्व में भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हो गया।
- वहीं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटेन इस समय द्वितीय विश्वयुद्ध से जूझ रहा था।
- इस द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन द्वारा अपने उपनिवेशी देशों का सहयोग प्राप्त करना अति आवश्यक था। वहीं भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन इस दौरान ब्रिटिश सरकार से संवैधानिक सुधारों की प्रबल माँग कर रहा था।
- इस समय मुस्लिम लीग एक अलग राष्ट्र की माँग पर अड़ी हुई थी। मुस्लिम, राष्ट्रवादी आंदोलन में बाधा उत्पन्न करने का भी काम रही थी और इसमें ब्रिटिश सरकार को उसे अप्रत्यक्ष रूप से पूरा समर्थन प्राप्त था।
- जब भारतीय राष्ट्रवादियों ने पाया कि मुस्लिम लीग के सहयोग के बिना भारत में संवैधानिक सुधारों की रूपरेखा निर्मित नहीं की जा सकती तो सी.आर. फार्मूले द्वारा सांप्रदायिकता की इस समस्या का हल निकालने का प्रयत्न किया गया।
सी.आर फार्मूला
दरअसल 1942 में कांग्रेस के एक प्रभावशाली नेता सी. राजगोपालाचारी ने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान के निर्माण की बात को सहमति दे दी। इससे कांग्रेस में तीव्र मतभेद उत्पन्न हो गया तथा कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सी. राजगोपालाचारी की इस बात की कड़ी निंदा की। इसके बाद भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया। इस आंदोलन में मुस्लिम लीग ने ब्रिटिश सरकार का साथ दिया। अंततः भारत छोड़ो आंदोलन असफल हो गया।
आंदोलन की इस असफलता से कांग्रेस यह अच्छी तरह समझ गई थी कि बिना मुस्लिम लीग के सहयोग के भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त नहीं किया जा सकता। अतः पुनः 1944 में सी. राजगोपालाचारी ने अपनी योजना प्रस्तुत की, जिसे सी.आर. फार्मूले के नाम से जाना जाता है।
इस योजना में कहा गया कि मुस्लिम लीग भारत की स्वतंत्रता की माँग का समर्थन करेगी। मुस्लिम बहुल प्रांतों में जनता का मत जाना जाएगा कि वे भारत से अलग होना चाहते हैं या नहीं। ये - दोनों शर्ते तभी लागू होंगी जब भारत आजाद हो जाएगा। इन दो प्रमुख शर्तों के आधार पर गाँधीजी और मोहम्मद अली जिन्ना के बीच वार्ता हुई। जिन्ना ने इस फार्मूले को अस्वीकार कर दिया- क्योंकि जिन्ना एक तो बिना जनमत के भारत का एक बड़ा हिस्सा पाकिस्तान के रूप में चाहता था और दूसरा, जिन्ना ने कहा कि अगर जनमत करवाना भी है तो उसमें सिर्फ मुस्लमान ही भाग लें, कोई गैर- मुस्लिम भाग न ले।
इस प्रकार काफी विचार-विमर्श के बाद सी.आर फार्मूला असफल हो गया। गाँधी-जिन्ना की इस वार्ता का सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ कि भारत का विभाजन अब अधिक चर्चा का विषय बन गया। साथ ही जिन्ना अखिल भारतीय स्तर पर एक बड़े नेता के रूप में उभरे जिसे अब ब्रिटिश सरकार और ज्यादा महत्व देने लग गई।
वेवल योजना और शिमला सम्मेलन, 1943
1943 में लार्ड वेवल भारत का वायसराय नियुक्त हुआ। वेवल ने कहा कि सभी प्रांतों में उत्तरदायी सरकारें स्थापित की जायेंगी और भारत का संविधान स्वंय भारतीय बनायेंगे। वेवल की इस घोषणा को ही वेवल योजना के नाम से जाना जाता है। इस योजना पर चर्चा करने के लिए वेवल ने कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग को शिमला में एक सम्मेलन में आने को कहा। इसे ही शिमला सम्मेलन कहते हैं। कांग्रेस ने वेवल की इस योजना को स्वीकार कर लिया क्योंकि इसमें भारतीयों द्वारा भारत के भावी संविधान के निर्माण की बात कही गई थी। किन्तु मुस्लिम लीग ने इस योजना को अस्वीकार कर दिया क्योंकि इसमें पाकिस्तान के निर्माण की बात नहीं कही गई थी।
ब्रिटेन में सत्ता का परिवर्तन तथा भारत में चुनाव 1945 में ब्रिटेन में हुए आम चुनावों में मजदूर दल (सुधारवादी) की सरकार को बहुमत मिला तथा एटली ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने। भारत में भी 1945 के अंत में केन्द्रीय विधानसभा के चुनाव हुए जिसमें कांग्रेस को सामान्य सीटों पर तथा मुस्लिम लीग को मुसलमानों के लिए आरक्षित स्थानों पर जीत मिली। इससे स्पष्ट हो गया कि मुसलमानों पर कांग्रेस का कोई विशेष प्रभाव नहीं है तथा मुस्लिम लीग ही मुसलमानों का वास्तविक प्रतिनिधित्व कर रही है।
एटली की घोषणा और कैबिनेट मिशन
1946 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लार्ड एटली ने ब्रिटिश पार्लियामेंट से घोषणा करते हुए भारतीयों के आत्मनिर्णयन के अधिकार को स्वीकार कर लिया। साथ ही यह भी घोषणा की कि ब्रिटिश सरकार भारत में चल रहे राजनीतिक गतिरोध को दूर करने के लिए एक कैबिनेट मिशन भेजेगी।
1946 में तीन सदस्यों वाला एक कैबिनेट मिशन भारत पहुंचा, जिसमें लाई पैथिक लारेन्स, सर स्टेफोर्ड क्रिप्स तथा एलेक्जेण्डर शामिल थे। इस कैबिनेट मिशन का उद्देश्य भारत में संवैधानिक सुधारों की रूपरेखा निर्मित करना तथा केन्द्र में एक अस्थायी सरकार की स्थापना करना था। इस योजना में कैबिनेट मिशन ने मुस्लिम लीग की देश के विभाजन की माँग को ठुकरा दिया। इसके बावजूद मुस्लिम लीग तथा कांग्रेस दोनों ने कैबिनेट मिशन को स्वीकार कर लिया जिसमें केन्द्र में एक अस्थायी सरकार की स्थापना करना शामिल था।
कांग्रेस ने इस योजना को इसलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि एक तो केन्द्र में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की बात कही गई थी और दूसरा इस योजना ने मुस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग को ठुकरा दिया था। मुस्लिम लीग ने इस योजना को इसलिए स्वीकार कर लिया कि उसे केन्द्र में सरकार बनाने में भागीदारी प्राप्त हुई थी। मुस्लिम लीग का मानना था कि केन्द्र में सरकार के भाग के रूप में लीग पाकिस्तान के निर्माण की माँग को और अधिक मजबूती से उठा सकती है। साथ ही लीग नहीं चाहती थी कि बिना मुस्लिम लीग के केन्द्र में सिर्फ कांग्रेस की सरकार बने क्योकि इससे लीग के हितों को नुकसान पहुंचने का खतरा था। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग ने केन्द्र में सरकार बनाई। केन्द्रीय कैबिनेट में मुस्लिम लीग के सदस्य भी शामिल थे। इसके बाद पाकिस्तान की माँग को लेकर देश में सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए।
भारत में बढते सांप्रदायिक दंगों तथा अंतर्राष्ट्रीय दबाव के मद्देनजर ब्रिटेन ने भारत से अपना अधिकार समाप्त करना ही उचित समझा। अतः ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने 20 फरवरी 1947 को घोषणा कि जून 1948 तक ब्रिटिश सरकार भारत के उत्तरदायी व्यक्तियों निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को भारत की सत्ता सौंप देगी तथा भारत को आजाद कर देगी।
भारत शासन अधिनियम, 1947
इस अधिनियम द्वारा 15 अगस्त 1947 को भारत में ब्रिटिश शासन को समाप्त कर भारत को संप्रभु राष्ट्र घोषित कर दिया गया। इस अधिनियम द्वारा भारत तथा पाकिस्तान नामक दो संप्रभु राज्यों के गठन का प्रावधान किया गया। साथ ही एक तीसरी व्यवस्था देशी रियासतों के संबंध में की गई।
इस अधिनियम द्वारा देशी रियासतों को भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी भी देश के साथ शामिल होने की स्वतंत्रता दे दी गई। साथ ही देशी रियासतों को यह अधिकार भी दे दिया कि वे स्वतंत्रत रूप से भी रह सकते हैं।
इस अधिनियम द्वारा दोनों देशों की संविधान सभाओं को अपने अपने देश का संविधान निर्माण करने का अधिकार प्रदान किया गया। ब्रिटिश पार्लियामेंट द्वारा निर्मित कोई भी कानून भारत और पाकिस्तान पर लागू नहीं होगा। किन्तु यदि कोई देश चाहे तो कानून बनाकर ब्रिटिश पार्लियामेंट के किसी कानून को अपने क्षेत्र में लागू कर सकते हैं।
आगे चलकर देशी रियासतों के एकीकरण तथा उन्हें भारत में शामिल करने के लिए भारतीय नेताओं विशेषकर सरदार पटेल को कठिन परिश्रम करना पड़ा। इस अधिनियम द्वारा भारत के वायसराय को केन्द्र का जबकि राज्यों के गवर्नरों को राज्य का संवैधानिक प्रमुख घोषित कर दिया गया। साथ ही यह प्रावधान किया गया कि ये संवैधानिक प्रमुख मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह के अनुसार कार्य करेंगे।
वर्तमान में भारतीय संविधान का अनुच्छेद 74 कहता है कि राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी तथा राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करेगा। संविधान का अनुच्छेद 163 यही व्यवस्था राज्यों के संबंध में करता है। इस अधिनियम द्वारा भारत पर ब्रिटिश संप्रभुता की समाप्ति की भी घोषणा कर दी गई। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान की प्रस्तावना में संप्रभु शब्द का उल्लेख कर भारत के संप्रभु होने पर संवैधानिक मुहर लगा दी।
संविधान सभा
1947 के अधिनियम ने भारत की स्वतंत्रता पर मुहर लगा दी। जब भारत आजाद हुआ तो इस दौरान एक साथ दो कार्य चल रहे थे -
- संविधान सभा द्वारा भारत के भावी संविधान का निर्माण
- देशी रियासतों का एकीकरण
राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान संविधान सभा के निर्माण की मांग की जा रही थी। भारत में संविधान सभा के गठन का विचार पहली बार एम एन राय ने 1934 में रखा गया। 1935 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार भारत के संविधान के निर्माण के लिए संविधान सभा के गठन की माँग की। राष्ट्रवादी आंदोलन की प्रमुख माँग भी यही थी कि भारत को स्वतंत्र किया जाए तथा स्वतंत्र भारत के संविधान का निर्माण बिना किसी बाहरी हस्तक्षेप के भारतीय संविधान सभा द्वारा किया जाएगा जो कि जनता द्वारा चुनी हुई होगी।
ब्रिटिश सरकार द्वारा औपचारिक रूप से 1940 में अगस्त प्रस्ताव के माध्यम से भारतीयों की इस माँग द्वारा पहली बार स्वीकार किया गया। 1946 में कैबिनेट मिशन द्वारा दिए गए सुझावों के आधार पर संविधान सभा का गठन हुआ। इस योजना में संविधान सभा के सदस्यों की संख्या का निर्धारण जनसंख्या के आधार पर किया गया था। दस लाख व्यक्तियों पर एक प्रतिनिधि चुने जाने का प्रावधान किया गया। देशी रियासतों से भी इसी आधार पर प्रतिनिधि चुनने की व्यवस्था की गई।
इस योजना के आधार पर दिसंबर 1946 में प्रांतीय विधायिकाओं के चुनाव हुए। कांग्रेस को लगभग 70 प्रतिशत सीटों पर बहुमत प्राप्त हुआ। मुस्लिम लीग ने संविधान सभा में अपनी कमजोर स्थिति देखकर संविधान सभा के बहिष्कार का निर्णय लिया तथा संविधान सभा के प्रथम अधिवेशन में मुस्लिम लीग के प्रतिनिधियों ने भाग नहीं लिया। भारत के लिए संविधान बनाने वाली सभा में अब 324 सदस्य रह गए थे। इस संविधान सभा में कांग्रेस का प्रतिनिधत्व 80 प्रतिशत से भी अधिक था।
प्रांतीय विधायिकाओं द्वारा संविधान सभा के सदस्यों का चयन किया गया। इस प्रकार संविधान सभा प्रत्यक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित नहीं थी बल्कि जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा चुनी गई थी।
संविधान सभा के समक्ष चुनौतियाँ
- भारत की विशालता तथा विविधता
- सांप्रदायिकता की समस्या
- विविध हितों की रक्षा
संविधान सभा को अल्पसंख्यक, पिछड़ी जातियों, महिलाओं आदि विशेष वर्गों के लिए भी विशेष प्रावधान करने थे, ताकि उनके हितों की रक्षा की जा सके तथा साथ ही उन्हें भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भागीदार बनाया जा सके।
इस प्रकार संविधान सभा द्वारा ऐसे भारतीय संविधान का निर्माण करना था जिससे भारत अपनी आकांक्षाओं के अनुकूल तथा श्रेष्ठ राजकीय व्यवस्था का निर्माण कर सके तथा उसका संचालन कर सके। यह कार्य निश्चित ही चुनौतीपूर्ण था।
संविधान निर्माताओं को प्रभावित करने वाले विचार
भारतीय संविधान निर्माताओं को प्रभावित करने वाले तीन प्रमुख विचार थे, जिन पर पूरी संविधान सभा एकमत थी -
- समाजवाद की स्थापना
- राज्यों की तुलना में केन्द्र को अधिक शक्तिशाली भूमिका प्रदान करना
- लोकतंत्र, समता, निष्पक्ष एवं वयस्क मताधिकार, पंथनिरपेक्षता, स्वतंत्रता इत्यादि संकल्पनाओं को अपनाना
उद्देश्य प्रस्ताव
13 दिसम्बर 1946 को पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव (Objective Resolution) पेश किया जिससे संविधान निर्माण की औपचारिक शुरुआत हुई। उद्देश्य प्रस्ताव में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा के समक्ष एक आदर्श संविधान का प्रारूप रखा था। वस्तुतः इस प्रस्ताव में उन बातों तथा आदर्शों का उल्लेख था जिनके आधार पर संविधान सभा को इस संविधान का निर्माण करना था। आगे चलकर इसी उद्देश्य प्रस्ताव को भारतीय संविधान की प्रस्तावना के रूप में संविधान सभा द्वारा स्वीकार कर लिया गया।
भारत एक पूर्ण संप्रभुता संपन्न गणराज्य होगा , जो स्वयं अपना संविधान बनाएगा। भारत संघ में ऐसे सभी क्षेत्र शामिल होंगे, जो इस समय ब्रिटिश भारत में हैं या देशीरियासतों में हैं या इन दोनों से बाहर, ऐसे क्षेत्र जो भारत में शामिल होना चाहते हैं। भारतीय संघ तथा उसकी इकाइयों में समस्त राजशक्ति का मूल स्रोत स्वयं जनता होगी। अल्पसंख्यक वर्ग, पिछड़ी जातियों और कबायली जातियों के हितों की रक्षा की समुचित व्यवस्था की जाएगी।
संविधान सभा की कार्यप्रणाली
संविधान निर्माता किसी मौलिक ग्रंथ की खोज में नहीं थे। संविधान सभा का दृष्टिकोण एक ऐसे संविधान का निर्माण करना था जिसे व्यावहारिक रूप से लागू किया जा सके।
संविधान सभा में सभी प्रकार के दृष्टिकोणों का प्रतिनिधित्व करने वाले जैसे कुछ दक्षिणपंथी, कुछ वामपंथी और कुछ मध्यमार्गी भी थे। अतः एक समन्वित दृष्टिकोण उभर कर आया और एक यथार्थवादी दृष्टिकोण को मान्यता दी गई।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता व राज्य विषयक अधिकारों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया गया, अतः प्रत्येक मूल अधिकार के साथ उसकी सीमाएँ भी निश्चित की गई। संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों का दृष्टिकोण उदारवादी था तथा सुरक्षा को अधिक महत्व देने वाला था। अतः संकटकालीन व्यवस्थाओं से संबंधित प्रावधान, राज्यों को शक्ति विभाजन में भागीदारी संबंधी प्रावधानों को भी शामिल किया गया।
भारतीय संविधान सभा के दृष्टिकोण एवं कार्यप्रणाली का सबसे उपयुक्त विश्लेषण प्रसिद्ध पाश्चात्य विचारक ग्रेनविल आस्टिन की पुस्तक "Indian Constitution: Corner Stone of A Nation" में मिलता है। ग्रेनविल आस्टिन ने बताया कि भारत की संविधान सभा का दृष्टिकोण तीन सिद्धांतों पर आधारित था -
- सर्वसम्मति (Consensus) : सर्वसम्मति से तात्पर्य था कि जो भी निर्णय लिए जायें वे या तो एकमत से लिया जायें या लगभग एकमत से लिए जायें। संविधान सभा में बहुमत के बल पर निर्णय लेने के स्थान पर सबकी सहमति प्राप्त करने का प्रयास किया गया। पं. जवाहर लाल नेहरू का संविधान सभा में कहा गया कथन इस मत की पुष्टि करता है। उन्होंने संविधान सभा में कहा था कि शीघ्रता से निर्णय न लिए जायें और जहाँ तक संभव हो एक मत होकर फैसले किए जायें। वस्तुतः संविधान सभा के सदस्य समझते थे कि यदि बहुमत के आधार पर निर्णय लेकर संविधान का निर्माण किया गया तो यह लोकतांत्रिक भारत की आकांक्षाओं को पूरा नहीं कर पाएगा। संघीय व्यवस्था, भाषा, संसद का द्विसदनीय होना, संसद का कार्यकाल इत्यादि ऐसे प्रावधान है, जिन पर संविधान सभा के सभी सदस्य सहमत थे और सर्वसम्मति से इन विषयों पर निर्णय लिया गया।
- समायोजन (Accommodation) : समायोजन से तात्पर्य दो परस्पर विरोधी समझी जाने वाली विचारधाराओं के बीच समन्वय स्थापित करने से है। संविधान के कुछ प्रावधानों को समायोजन के सिद्धांत के आधार पर अपनाया गया। संविधान निर्माण के क्षेत्र में यह भारत का मौलिक योगदान कहा जा सकता है। उदाहरण के लिए संविधान सभा के कुछ सदस्यों का मत था कि भारत में संघात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया जाए, जिसमें राज्य केन्द्र के साथ बराबरी की भूमिका में रहे। वहीं संविधान सभा के कुछ सदस्यों का कहना था कि भारत में एकात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया जाए, जिसमें केन्द्र की नियंत्रणकारी एवं प्रभावकारी भूमिका रहे। संविधान सभा द्वारा इस संबंध में समायोजन के सिद्धांत को अपनाया गया। सामान्य परिस्थितियों में भारतीय राजव्यवस्था संघात्मक प्रणाली के अंतर्गत कार्य करती है, किन्तु आपातकालीन परिस्थितियों में यह एकात्मक रूप धारण कर लेती है। यह समायेजन के सिद्धांत का सबसे अच्छा उदाहरण हैं संघात्मक vs एकात्मक व्यवस्था, संसदीय vs अध्यक्षात्मक व्यवस्था, राष्ट्रपति के निर्वाचन के संबंध में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रणाली इत्यादि कुछ ऐसे प्रावधान हैं जिनके संबंध में संविधान सभा में दो गुट उभरकर सामने आ रहे थे। अंततः इन विषयों के संबंध में समायोजन का सिद्धांत अपनाया गया।
- परिवर्तन के साथ चयन (Selection with Modification) : इस सिद्धांत का प्रयोग वस्तुतः उन प्रावधानों के संबंध में किया गया जिन्हें दूसरे देशों के संविधानों से ग्रहण किया गया। दूसरे देशों की संवैधानिक विशेषताओं के संबंध में भारतीय संविधान निर्माताओं ने नकल का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि पहले उन देशों की संवैधानिक विशेषताओं का अच्छे से अध्ययन किया तथा फिर उन विशेषताओं को भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप संशोधित करते हुए संविधान में दर्ज किया। उदाहरण के लिए परिवर्तन के साथ चयन के सिद्धांत का इस्तेमाल करते हुए संविधान निर्माताओं ने एक नए प्रकार की संघात्मक व्यवस्था को अपनाया। वस्तुतः सघात्मक व्यवस्था अमेरिकी संविधान से ली गई है किन्तु अमेरिका में राज्यों को संघ से अलग होने का अधिकार है। किन्तु भारतीय संविधान निर्माताओं ने इस संबंध में Federalism के बजाय Union शब्द का इस्तेमाल किया। हालांकि हिन्दी में दोनों शब्दों का अर्थ संघ होता है। किन्तु भारतीय संघीय व्यवस्था अमेरिका की संघीय व्यवस्था से बिल्कुल अलग है।
इस प्रकार भारतीय संविधान का पहला अनुच्छेद परिवर्तन के साथ चयन का सबसे अच्छा उदाहरण है। इस प्रकार संविधान सभा के सदस्यों का दृष्टिकोण कुछ विषयों के संबंध में परिवर्तन के साथ चयन के सिद्धांत पर आधारित था। उन्होंने विदेशी संविधानों से लिए विभिन्न आदर्शों एवं सिद्धांतों का भारतीयकरण किया।
संविधान निर्माण में विभिन्न विचारधाराओं का प्रभाव
संविधान सभा में अधिकांशतः वह सदस्य शामिल थे जिन्होंने भारत की आजादी की एक लंबी लड़ाई लड़ी थी। आजादी की लड़ाई के दौरान ही इन नेताओं के मस्तिष्क में स्वतंत्र भारत के लिए एक आदर्श संविधान की रूपरेखा विकसित हो चुकी थी। अतः भारतीय संविधान के निर्माण को इन नेताओं के व्यक्तित्व ने व्यापक रूप से प्रभावित किया। भारतीय संविधान पर महात्मा गाँधी, पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, डा. भीमराव अंबेडकर, राजेन्द्र प्रसाद इत्यादि नेताओं के विचारों का प्रभाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। गाँधीजी यद्यपि संविधान सभा के सदस्य नहीं थे किन्तु इनके आदर्शों को संविधान सभा के सदस्यों ने संविधान का निर्माण करते समय ध्यान में रखा। ये विचारधाराएँ निम्नलिखित हैं -
- गाँधीवादी विचारधारा
- समाजवादी विचारधारा
- उदारवादी विचारधारा
- एकीकृत विचारधारा
गाँधीवादी विचारधारा
गाँधीवादी विचारधारा के अंतर्गत संविधान में निम्नलिखित प्रावधानों को अपनाया -
- पंचायतों का गठन
- पिछड़े वर्गों का उत्थान संबंधी विशेष प्रावधान
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता
- नीति-निदेशक तत्वों के माध्यम से ग्रामीण एंव कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन
समाजवादी विचारधारा
पं. जवाहर लाल नेहरू ने राष्ट्रवादी आंदोलन के दौरान समाजवाद पर अधिक बल दिया था, अतः संविधान बनाते समय राज्य के नीति निदेशक तत्वों के रूप में समाजवादी अवधारणा के प्रमाण मिलते हैं। उदाहरण के लिए संविधान के अनुच्छेद-38 में लोककल्याण को बढावा देने के लिए सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक न्याय पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का वर्णन है। अनुच्छेद-39 में वर्णित है कि समाज के संसाधनों का वितरण इस प्रकार करना कि उनका लाभ सभी ले सकें तथा वे एक ही हाथों में केन्द्रित न हों।
उदारवादी विचारधारा
वस्तुतः उदारवादी विचारधारा संविधान सभा के सभी सदस्यों की विशेषता कही जा सकती है। भारतीय संविधान पर सबसे अधिक प्रभाव उदारवादी दृष्टिकोण का ही पड़ा है। मूल अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता, समाजिक न्याय, कानूनी समक्षता, वयस्क मताधिकार इत्यादि संविधान के कुछ ऐसे लक्षण है जो संविधान निर्माताओं की उदारवादी विचारधारा से प्रेरित है।
एकीकृत विचारधारा
इस विचारधारा के सबसे प्रबल समर्थक सरदार वल्लभभाई पटेल थे। भारतीय संविधान निर्माताओं को ब्रिटिशकाल की फूट डालो और राज करो की नीति का कटु अनुभव था और साथ ही देश के विभाजन की दंश भी भारत ने झेला था, अतः संविधान निर्माता विशेषकर सरदार पटेल एक ऐसे संविधान का निर्माण करना चाहते थे जिससे भविष्य में भारत की एकता और अखंडता सुनिश्चित रह सके। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 इसका सबसे अच्छा उदाहरण है जिसकी चर्चा हम कर चुके हैं। इसके अलावा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एकता शब्द का समावेश किया गया और आगे चलकर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा एकता के साथ अखंडता शब्द को भी जोड़ दिया गया। केन्द्र को राज्यों की तुलना में अधिक शक्तिशाली भूमिका प्रदान करना भी एकीकृत विचारधारा का प्रभाव है।
डा. भीमराव अंबेडकर का प्रभाव
डा. भीमराव अंबेडकर भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे। ब्रिटिशकाल से ही अंबेडकर दलितों के उत्थान के लिए सक्रिय रूप से प्रयास कर रहे थे। वह स्वयं भी इस प्रकार की पृष्ठभूमि से आए थे जहाँ उन्होंने जातिगत आधार पर भेदभाव का सामना किया था। अतः डा. अंबेडकर भारतीय संविधान में ही ऐसी व्यवस्था करना चाहते थे ताकि भविष्य में दलित एवं पिछड़ी जातियों को इस प्रकार की भेदभाव वाली स्थिति का सामना न करना पड़े और वे समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सके।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15, अनुच्छेद 16, अल्पसंख्यकों की संस्कृति एवं शिक्षा के लिए व्यवस्था करने वाले अनुच्छेद 29 और 30, लोकसभा एवं राज्य - विधानसभा में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था संबंधी प्रावधान अंबेडकर की विचारधारा से ही प्रेरित हैं।
इसके अलावा संविधान की पाँचवी और छठी अनुसूची में अनुसूचित जाति और जनजातीय क्षेत्रों के लिए विशेष प्रावधान भी डा. भीमराव अंबेडकर के भारतीय संविधान पर प्रभाव को दर्शाते हैं।
भारतीय संविधान की विशेषताएँ
डा. भीमराव अंबेडकर ने अनुसार "भारतीय संविधान व्यावहारिक है, इसमें परिवर्तन की क्षमता है और शांतिकाल एवं आपातकाल में देश की एकता को बनाए रखने की भी सामर्थ्य है।"
भारतीय संविधान की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं -
1. सत्ता की अंतिम शक्ति जनता में निहित
भारतीय संविधान द्वारा अंतिम शक्ति भारतीय जनता को प्रदान की गई है। संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित 'हम भारत के लोग ..... इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्माप्रित करते हैं।" इस प्रकार भारत का संविधान भारतीय शासन अधिनियम 1935 की तरह विदेशी शक्ति की रचना नहीं बल्कि भारत की जनता द्वारा निर्मित और अधिनियमित किया गया है।
2. प्रस्तावना
भारत के संविधान के मौलिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों को संविधान की प्रस्तावना में दर्शाया गया है। प्रस्तावना में उल्लेख किया गया है कि भारतीय राजव्यवस्था की प्रकृति संप्रभुता पर आधारित लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक होगी, जिसमें सभी व्यक्ति के लिए स्वतंत्रता, समता और न्याय जैसे- उच्च आदर्शों को सुनिश्चित करने की बात कही गई है। 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष और समाजवाद जैसे शब्दों का उल्लेख कर और अधिक स्पष्टता लाने का प्रयास किया गया है। साथ ही इसमें राष्ट्र की एकता और व्यक्ति की गरिमा को विशेष महत्व दिया गया है।
3. विश्व का सबसे बड़ा लिखित संविधान
भारत का संविधान विश्व का सबसे बड़ा संविधान है। मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, 22 भाग और 8 अनुसूचियाँ थी, किन्तु वर्तमान में विभिन्न संवैधानिक संशोधनों के पश्चात् संख्या में 400 से अधिक अनुच्छेद एवं 12 अनुसूचियाँ हैं।
भारत के संविधान के विश्व का सबसे बड़ा संविधान होने के पीछे कई कारण हैं। जैसे- केन्द्र एवं राज्यों के लिए अलग-अलग विधायी और प्रशासनिक व्यवस्था, शक्तियों का विभाजन, पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष प्रावधान, आपातकालीन प्रावधान, मूल अधिकारों का विस्तृत विवेचन, विभिन्न संवैधानिक आयोगों का वर्णन इत्यादि।
इसके अलावा केन्द्र के साथ ही राज्यों के लिए अलग से विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका संबंधी प्रावधान शामिल किए गए हैं। वस्तुतः संविधान निर्माता नव-गठित लोकतांत्रिक भारत के लिए समस्त प्रावधानों का उल्लेख संविधान में ही करना चाहते थे ताकि आगे चलकर किसी प्रकार की अस्पष्टता तथा जटिलता का सामना न करना पड़े।
साथ ही भारतीय संविधान निर्माता ब्रिटिशकाल में हुए भारतीय जनता के शोषण से भी परिचित थे, अतः उन्होंने भारत के संविधान के आकार पर ध्यान देने के बजाय उन सभी प्रावधानों को संविधान में शामिल करना उचित समझा, जिससे प्रस्तावना में उल्लिखित लक्ष्यों एवं आदर्शों को प्राप्त किया जा सके।
4. संप्रभुता
संप्रभुता का अर्थ - भारत अपने आंतरिक और बाहरी मामलों में पूर्णतः स्वतंत्र है तथा किसी विदेशी शक्ति के अधीन नहीं है। देश की अंतिम संप्रभु शक्ति भारत की जनता में निहित है।
5. लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक देश
लोकतंत्र का तात्पर्य जनता का जनता द्वारा जनता के लिए किए जाने वाले शासन से है। जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनेगी और चुने हुए प्रतिनिधि जनता के कल्याण के लिए नीतियाँ बनायेंगे व उनको लागू करेंगे।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 326 भारत को एक लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान करता है जिसके अनुसार किसी व्यक्ति के साथ धर्म, जाति एवं लिंग के आधार पर वोट देने के संबंध में भेदभाव नहीं किया जाएगा।
भारत का संविधान भारत गणतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित करता है। भारत में गणतंत्र को दो अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है।
- सरकार के यानी, राष्ट्रपति का चुनाव पांच वर्ष के लिए किया जाता है।
- प्रत्येक सरकारी पद बिना किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिए खुला है।
भारत में सरकार का प्रमुख वंशानुगत न होकर जनता द्वारा एक निश्चित अवधि के लिए अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है। सार रूप में, भारत के राज्याध्यक्ष अर्थात् राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से 5 वर्ष के लिए होता है भारत के सभी सार्वजनिक पद बिना किसी भेदभाव के सभी के लिए खुले हैं। साथ ही भारत में कोई विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं है।
6. संसदीय शासन व्यवस्था
भारत में ब्रिटेन की संसदीय शासन व्यवस्था को अपनाया गया है। संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका की नाममात्र शक्तियां राष्ट्रपति में होती है, जबकि वास्तविक शक्तियाँ प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषद में निहत होती हैं।
इस प्रणाली में कार्यपालिका का गठन विधायिका में से ही किया जाता है तथा कार्यपालिका विधायिका के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होती है।
जब तक मंत्रिपरिषद विधायिका के प्रति जवाबदेह बनी रहती है तथा विधायिका में उसका बहुमत बना रहता है तब तक मंत्रिपरिषद का कार्य करती रहती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 53 और 74 भारत में संसदीय व्यवस्था को स्थापित करते हैं।
अनुच्छदे 53 एवं 74 को एक साथ पढने पर स्पष्ट होता है कि संघ की समस्त कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित होंगी। राष्ट्रपति को सहायता एवं सलाह देने के लिए प्रधानमंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद होगी। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करेंगे।
7. मूल अधिकार, नीति-निदेशक तत्व एवं मूल कर्तव्यों का समावेश
भारतीय संविधान का भाग 3 व्यक्तियों को उनके सर्वांगीण विकास के लिए मूल अधिकार उपलब्ध करवाता है।
इनका हनन पर होने पर व्यक्ति को अनुच्छेद 32 तहत सुप्रीम कोर्ट तथा अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट जाने का अधिकार है। साथ ही यह अधिकार विधायिका एवं कार्यपालिका की शक्तियों के निरंकुश प्रयोग पर भी अंकुश लगाते हैं।
संविधान के भाग 4 में नीति निदेशक तत्वों का उल्लेख किया गया यह राज्य के लिए सकारात्मक दिशा निर्देश हैं तथा लोक कल्याणकारी गतिविधियों के लिए सरकारों को प्रेरित करते हैं।
ये लोक कल्याणकारी राज्य के लिए आवश्यक तत्व हैं । यद्यपि नीति निदेशक तत्वों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता है किन्तु विधायिका के निर्वाचन में यह तत्व जनता के लिए सरकार की सफलता के परीक्षण का आधार बनते हैं।
सरदार स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिशों के आधार पर 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा भारतीय संविधान के भाग 4क में मूल कर्तव्यों को जोड़ा गया। इन कर्तव्यों में संविधान का पालन करना, भारत की प्रभुता, एकता व अखंडता की रक्षा करना, पर्यावरण का संरक्षण करना इत्यादि शामिल हैं।
यद्यपि इन कर्तव्यों का पालन करने के लिए नागरिक संवैधानिक रूप से बाध्य नहीं है किन्तु यह नागरिकों के लिए आदर्श नैतिक आधार प्रस्तुत करते हैं, जिनकी उपेक्षा करना एक सभ्य एवं जिम्मेदार नागरिक के लिए संभव नहीं होती है।
8. समाजवादी
मूल संविधान में इस शब्द का प्रयोग नहीं किया गया था क्योंकि संविधान निर्माता भावी पीढियों पर किसी विचारधारा को आरोपित नहीं करना चाहते थे।
42 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी शब्द को जोड़ा गया। यद्यपि समाजवाद के संबंध में प्रावधान निति-निदेशक तत्वों के रूप में संविधान में पहले से ही मौजूद थे, किन्तु 'समाजवाद' शब्द जोड़कर इन्हें और अधिक स्पष्ट रूप प्रदान किया गया।
सुप्रीम कोर्ट के अनुसार, भारतीय समाजवाद का उद्देश्य गरीबी, बीमारी, भूखमरी, अवसर की असमानता इत्यादि से नागरिकों को मुक्ति प्रदान करना है।
9. पंथनिरपेक्षता
धार्मिक मामलों के संबंध में भारतीय संविधान में एक तटस्थ दृष्टिकोण अपनाया गया है। यद्यपि 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम के द्वारा इस शब्द को संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया, किन्तु अनुच्छेद 25 से 28 तक मूल अधिकारों के रूप में भारतीय संविधान में पंथनिरपेक्ष राज्य के सभी लक्षण प्रारंभ से ही मौजूद थे।
डा. भीमराव अंबेडकर के शब्दों में, 'पंथ निरपेक्ष राज्य न धार्मिक है और न ही अधार्मिक और न ही धर्म विरोधी वरन् धार्मिक कार्यों में तटस्थ है।
10. एकात्मक और संघात्मक तत्वों का मिश्रण
संघात्मक व्यवस्था से तात्पर्य ऐसी व्यवस्था से है जिसमें केन्द्र तथा राज्य दोनों सरकारें अस्तित्व में होती हैं। संविधान के माध्यम से केन्द्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों का स्पष्ट विभाजन किया होता है। इसके अलावा लिखित संविधान, संविधान की सर्वोच्चता , द्विसदनीय विधायिका, निष्पक्ष एवं स्वतंत्र न्यायपालिका इत्यादि संघात्मक व्यवस्था के लक्षण होते हैं।
भारत में संघात्मक व्यवस्था के उपर्युक्त लक्षण पाए जाते हैं। वहीं एकात्मक व्यवस्था में केन्द्र की स्थिति मजबूत होती है तथा राज्यों को ज्यादा शक्तियाँ नहीं होती है। केन्द्र के पक्ष में शक्तियों का वितरण, संघ एवं राज्यों के लिए एक ही संविधान, एकल नागरिकता, संसद को राज्यों के पुनर्गठन की शक्ति इत्यादि एकात्मक व्यवस्था की विशेषतायें हैं जो भारतीय संविधान में भी मिलती है।
इस प्रकार भारतीय संविधान में संघात्मक और एकतात्मक दोनों व्यवस्थाओं के लक्षण पाए जाते हैं। यह संविधान की अनूठी विशेषता है कि संविधान निर्माताओं ने किसी एक व्यवस्था के आदर्श में बंधने के बजाय व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया तथा देश की एकता एवं अखंडता को प्राथमिकता दी।
संविधान निर्माता ऐसे संघ का निर्माण करना चाहते थे जिसमें केन्द्र सरकार भारत की एकता बनाए रखे और राज्यों को भी स्वायत्तता प्राप्त हो सके। इसलिए भारतीय संविधान में संघात्मक एवं एकात्मक तत्वों का मिश्रण है।
संविधान में ऐसे अनेक प्रावधान हैं जो केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली स्थिति प्रदान करते हैं। जैसे- केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तियाँ, समवर्ती सूची में केन्द्र के निर्णय को प्रमुखता, अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र के पास होना, अखिल भारतीय सेवायें, संसद को राज्यों के पुनर्गठन का अधिकार, राष्ट्रपति द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति , राज्यों की केन्द्र पर आर्थिक निर्भरता इत्यादि ऐसे विषय हैं जिन पर कानून बनाने का अधिकार केन्द्र को है। इन्हीं विशिष्टताओं के कारण भारतीय संघ विश्व की अन्य संघीय व्यवस्थाओं से भिन्न है।
11. कठोरता एवं लचीलेपन का समन्वय
भारतीय संविधान में संविधान संशोधन की लचीली एवं कठोर दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं को अपनाया गया है। संविधान के कुछ अनुच्छेद संसद के साधारण बहुमत से संशोधित किए जा सकते हैं, जैसे- राज्यों का पुनर्गठन, नागरिकता संबंधी प्रावधान आदि। जबकि कुछ संशोधन के लिए संसद को विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, जैसे- मूल अधिकार, नीति निदेशक तत्व आदि।
वहीं ऐसे संशोधन के लिए जो कि संविधान की संघीय व्यवस्था को प्रभावित करते हैं, संसद के विशेष बहुमत के साथ ही आधे राज्यों की विधानसभाओं का समर्थन भी आवश्यक होता है। जैसे संशोधन करना, राष्ट्रपति की स्वयं अनुच्छेद 368 में निर्वाचन प्रक्रिया, केन्द्र एवं राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन आदि।
वस्तुतः संविधान निर्माता एक ऐसे संविधान का निर्माण करना चाहते थे जिसमें कुछ ठोस प्रावधानों को सत्तारुढ दल द्वारा अपने संकीर्ण स्वार्थों के लिए बहुमत के आधार पर न बदला जा सके, वहीं कुछ ऐसी व्यवस्था भी करना चाहते थे ताकि आवश्यकतानुसार संविधान में सरलता से संशोधन किया जा सके तथा संविधान समय के अनुकूल अपने का प्रासंगिक बना सके।
संविधान सभा में पं. जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि हम संविधान संशोधन की प्रक्रिया को इतना कठोर भी नहीं बनाना चाहते थे कि परिस्थितियों के अनुसार उसमें संशोधन करना ही कठिन हो जाए और इतनी सरल प्रक्रिया भी नहीं अपनाना चाहते कि सत्तारूढ दल अपने बहुमत के बल पर अपनी मर्जी से उसमें संशोधन कर सके।' इस प्रकार संविधान में संशोधन की प्रक्रिया के संबंध में लचीली एवं कठोर दोनों प्रकार की व्यवस्थाओं का समुचित समन्वय किया गया है।
12. आपातकालीन प्रावधान
आपातकालीन स्थितियों से निपटने के लिए संविधान निर्माताओं ने संविधान में ही व्यवस्था करना उचित समझा। भारतीय संविधान में अनुच्छेद 352 से अनुच्छेद 360 तक तीन प्रकार के आपातकालों का उल्लेख किया गया है। आपातकाल में केन्द्र एवं राज्यों के बीच संबंधों एंव शक्तियों का सामान्य विभाजन स्थगित हो जाता है तथा केन्द्र को व्यापक शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। किन्तु आपातकालीन परिस्थितियों के समाप्त होते ही पुनः सामान्य संवैधानिक व्यवस्था लागू हो जाती है।
वस्तुतः संविधान निर्माता इस बात से परिचित थे कि संकटकाल से मजबूत एवं सशक्त केन्द्र ही निपट सकता है। अतः देश की संप्रभुता, एकता अखंडता एवं लोकतंत्र की सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए संविधान में आपातकालीन प्रावधानों का समावेश किया गया है ताकि भविष्य में इस प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने पर कोई अस्पष्टता न रहे तथा तुरंत निर्णय लेकर स्थितियों से निपटा जा सके।
13. संसदीय संप्रभुता एवं न्यायिक सर्वोच्चता में समन्वय
भारतीय संविधान में संसदीय संप्रभुता और न्यायिक पुनरावलोकन के उपबंधों में जो समन्वय किया गया है, वह भारतीय संविधान की अनूठी विशेषता एवं उपलब्धि है। इस संबंध में ब्रिटेन एवं अमेरिका के माडल भारतीय संविधान निर्माताओं के समक्ष उपस्थित थे। ब्रिटेन में संसद सर्वोच्च है और इसके द्वारा बनाए गए कानून को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
इसके विपरीत अमेरिका के संविधान मैन्यायपालिका की सर्वोच्चता के सिद्धांत को अपनाया गया है। भारत के संविधान मेंइन दोनों व्यवस्थाओं के मध्यमार्ग को अपनाया गया है। यह भारतीय परिस्थिति के अनुकूल है जो भारतीय संविधान को एक विशिष्टता प्रदान करता है।
भारत में संसद की सर्वोच्चता को मान्यता प्रदान तो की गई है, लेकिन साथ ही उसको नियंत्रित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को संविधान की व्याख्या करने का अधिकार दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय कार्यपालिका के आदर्शों तथा संसद द्वारा निर्मित विधिको अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान की भावना एवं मूल ढांचों के अनुरूप न हो।
14. अल्पसंख्यकों एवं पिछड़े वर्गों को सुरक्षा
समाज के पिछड़े वर्गों को समाज की मुख्य धारा में लाने के लिए संविधान में अल्पसंख्यकों के हितों के संरक्षण संबंधी प्रावधान किए गए हैं। अनुच्छेद 17 एआत के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है तो अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों को संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी संरक्षणकारी अधिकार प्रदान करता है।
इसके अतरिक्ति भारतीय संविधान में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए संविधान के भाग 16 में अनुच्छेद 330 से लेकर 342 तक विशेष प्रावधान किए गए है, जिनमें संसद एवं विधायिकाओं में उनके लिए स्थान आरक्षित किए गए हैं। साथ ही 73 वें एवं 74 वें संविधान संशोधनों के माध्यम से स्थानीय निकार्यों में इन वगों के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं।
संविधान संशोधन एवं मूल ढाँचा
1950 में हमारा संविधान पूरी तरह से लागू हो चुका था। किन्तु इसी वर्ष ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई कि 1951 में ही पहले संविधान संशोधन की आवश्यकता पड़ गई। दरअसल संविधान लागू होने के बाद भारत की नव-निर्मित लोकतांत्रिक सरकार ने विकास हेतु भूमि संबंधी सुधारों की ओर रूख किया। वस्तुतः ब्रिटिशकाल में लागू भू-राजस्व प्रणालियों का सर्वाधिक दोष जमींदार वर्ग के हाथों में कृषि भूमि का केन्द्रित होना था। जब इस समय भारत की लगभग 80 फीसदी से अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्मर थी। उद्योग-धंधों का विकास न के बराबर था और इतनी शीघ्रता से औद्योगिक विकास संभव भी नहीं था। भूमि सुधारों के संबंध में सरकार ने चकबंदी और हदबंदी व्यवस्था को अपनाया। जिन बड़े किसानों अथवा जमींदारों के पास बहुत अधिक भूमि थी, उनसे अतिरिक्त भूमि लेकर भूमिहीन किसानों को सौंपी जाने लगी। किन्तु इस दिशा में सबसे बड़ा अवरोधक संविधान के भाग तीन में अनुच्छेद 31 था। अनुच्छेद 31 के अंतर्गत संपित्त के अधिकार को व्यक्ति का मूल अधिकार घोषित किया गया था। जब सरकार जमीदार वर्ग से भूमि लेकर भूमिहीन या लघु किसानों को सौंपने लगी तो जमींदार वर्ग मूल अधिकारों के उल्लंघन हेतु सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट की शरण में जाने लगा।
इससे जहाँ एक ओर कार्यपालिक और न्यायपालिका में टकराव की स्थिति उत्पन्न होने लगी , वहीं सरकार के भूमि सुधारों की कवायद भी ठप्प पड़ने लगी। इस हेतु संसद ने पहले संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 31 क तथा अनुच्छेद 31 ख को संविधान में जोझ गया। साथ ही संविधान में नौवीं अनुसूची को जोड़ा गया।
अनुच्छेद 31क के द्वारा जमीदारी प्रथा के उन्मूलन को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई, जबकि अनु० 31ख मैं यह व्यवस्था की गई कि नौंवी अनुसूची में शामिल कानूनों अथवा संविधान संशोधन को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
नौंवी अनुसूची के माध्यम से यह व्यवस्था की गई कि संसद यदि किसी भी कानून या संविधान संशोधन को संविधान की नाँवी अनुसूची का भाग घोषित कर देती है, तो उस कानून को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। संसद के इस संशोधन को शंकरी प्रसाद मामले के तहत सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। (शंकरीप्रसाद vs भारत सरकार, 1951) इस मामले में याची द्वारा सुप्रीम कोर्ट मै तर्क दिया गया कि संविधान का अनुच्छेद 13 राज्य द्वारा इस प्रकार का कानून बनाने पर प्रतिबंध लगाता है जो नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लंघन करता है। चूंकि संविधान संशोधन अधिनियम भी एक प्रकार का कानून है, अतः संसद संविधान संशोधन द्वारा मूल अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती है। वहीं सरकार की ओर से तर्क दिया गया कि संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के तहत कानून की परिभाषा मैं नहीं आता है, अतः संसद संविधान संशोधन के माध्यम से मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है। सरकार ने भूमि संबंधी सुधारों का अपना दृष्टिकोण भी कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किया।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि संसद द्वारा किया गया संविधान संशोधन अनु० 13 की कानून की परिभाषा के दायरे में नहीं आता है, अतः संसद संविधान संशोधन के जरिए मूल अधिकारों को संशोधित कर सकती है। विश्लेषण यद्यपि संसद द्वारा भूमि-सुधारों को धरातल पर लागू करने के लिए संपत्ति के अधिकार को सीमित तथा संशोधित किया था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इस संदर्भ में संसद का दृष्टिकोण उदारवादी एवं लोक-कल्याणकारी भावना से प्रेरित था। किन्तु प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम ने मूल अधिकारों के संबंध में संसद और सुप्रीम कोर्ट को परस्पर प्रतिद्वंदी बना दिया।
17 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम संपति के अधिकार के संबंध में दूसरा महत्वपूर्ण संविधान संशोधन था। यद्यपि संसद द्वारा पहले संविधान संशोधन के जरिए संपत्ति के अधिकार सहित समस्त मूल अधिकारों में संशोधन की शक्ति को सुप्रीम कोर्ट ने वैधानिक मान्यता प्रदान कर दी थी। किन्तु प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम में सरकार द्वारा संपति अधिग्रहण करते समय किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति देने का प्रावधान नहीं किया गया था। अतः 17 वें संविधान संशोधन अधिनियम (1964) द्वारा यह व्यवस्था की गई कि निजी खेती के अधीन भूमि का अधिग्रहण तब तक नहीं किया जा सकता, जब तक कि प्रतिपूर्ति के रूप में उसका बाज़ार मूल्य न दिया जाए। किन्तु इस संशोधन अधिनियम द्वारा यह प्रावधान भी किया गया कि सरकार द्वारा भूतलक्षी प्रभाव से भी किसी की संपति का अधिग्रहण किया जा सकता है। भूतलक्षी प्रभाव का तात्पर्य है कि संसद द्वारा पारित किसी कानून को उस तिथि से लागू करने के बजाय जबकि इसे पारित किया गया है, पिछली किसी भी तिथि से लागू किया जा सकता है। इसके साथ ही इस संशोधन अधिनियम द्वारा नौंवी अनुसूची का दायरा बढाते हुए उसमें लगभग 4 दर्जन कानूनों को शामिल कर दिया गया। अर्थात् अब इन कानूनों को संपत्ति के अधिकार के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी।
वस्तुतः 17 वें संविधान संशोधन अधिनियम का मुख्य उद्देश्य दक्षिण भारत विशेषकर केरल और मद्रास द्वारा पारित भूमि सुधार कानूनों को न्यायिक चुनौती से संरक्षण प्रदान करना था। राजस्थान सरकार द्वारा इसी प्रकार का एक भूमि सुधार अधिनियम पारित किया गया था। राजस्थान सरकार के इस कानून को सज्जन सिंह नामक एक व्यक्ति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। सज्जन सिंह ने अपनी याचिका में संसद द्वारा पारित 17 वें संविधान संशोधन अधिनियम को भी चुनौती दी। इस मामले में संवैधानिक इतिहास में सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार (1965) मामले के नाम से जाना जाता है। इस मामले में भी याची एवं सरकार द्वारा वही तर्क प्रस्तुत किए गए जो कि शंकरी प्रसाद मामले में प्रस्तुत किए थे। कि संसदद्वारा एक बार पुनः सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के तकों को उचित मानते हुए निर्णय गया संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के अंतर्गत कानून की परिभाषा में नहीं आता है। अतः संसद संविधान संशोधन के जरिए मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह निर्णय देने के पश्चात् सरकार को भूमि सुधार कानून लागू करने की स्वीकृति मिल गई, वहीं संसद को मूल अधिकारों में किसी भी प्रकार का संशोधन करने की मान्यता भी प्राप्त हो गई। स्वतंत्रता के शुरूआती वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय ने शंकरीप्रसाद बनाम भारत सरकार मामला (1951) और सज्जन सिंह बनाम राजस्थान सरकार मामला (1965) जैसे मामलों में निर्णय देते हुए संसदको संविधान में संशोधन करने की पूर्ण शक्ति प्रदान की गई । इसका कारण यह माना जाता है कि स्वतंत्रता के बाद शुरुआती वर्षा में सर्वोच्च न्यायालय ने तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व पर - विश्वास जताया क्योंकि उस समय प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी संसद सदस्यों के रूप में सेवा कर रहे थे। किन्तु सज्जन सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के 5 न्यायाधीशों की पीठ में 2 न्यायाधीशों ने बहुमत के विपरीत फैसला सुनाया था।
न्यायाधीश हिदायतुल्ला ने स्पष्ट कहा था कि संसद को मूल अधिकारों में कटौती करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि संसद को इस प्रकार की शक्ति दी जाती है तो नागरिकों के मूल अधिकार सुरक्षित नहीं रख सकेंगे तथा संसद को मनमानी शक्तियाँ प्राप्त हो जायेगी। सुप्रीम कोर्ट के अल्पमत के इस निर्णय ने आगे चलकर गोलकनाय मामले में ऐतिहासिक संवैधानिक आधार प्राप्त कर लिया।
दरअसल, पंजाब में सरकार ने भूमि सुधार के तहत गोलकनाथ नामक व्यक्ति की जमीन का अधिग्रहण कर लिया। गोलकनाथ ने पंजाब सरकार के इस निर्णय को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी, जिसे गोलकनाय बनाम पंजाब सरकार (1967) मामले के नाम से जाना जाता है। इस मामले में याची की ओर से सुप्रीम कोर्ट 26/41 तर्क दिया गया कि उनकी भूमिका सरकार द्वारा अधिग्रहण किया जाना अनुच्छेद 31 के तहत उनके संपत्ति के अधिकार का उल्लंघन है। साथ ही यह भी तर्क दिया कि उनकी भूमि का अधिग्रहण अनुच्छेद 14 में प्रदत विधि के समक्ष समता के अधिकार का उल्लंघन है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने याचीकाकर्ता के तर्कों को उचित मानते हुए ऐतिहासिक निर्णय दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यद्यपि भूमि संबंधी सुधारों को लागू करना सरकार का कर्तव्य है और यह कर्तव्य नीति-निदेशक तत्वों में समाहित है। किन्तु नीति-निदेशक तत्वों का लागू करने के लिए नागरिकों के मूल अधिकारों को सीमित करना असंवैधानिक है। इसी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने मूल अधिकारों की नीति-निदेशक तत्वों पर वरीयता को भी सुनिश्चित किया। अपना निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यद्यपि संसद को संविधान में संशोधन करने का अधिकार है किन्तु संसद मूल अधिकरों में किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं कर सकती है। संसद द्वारा किया संविधान संशोधन अधिनियम भी अनुच्छेद 13 के अंतर्गत विधि की परिभाषा के अंतर्गत आता है, अतः संसद द्वारा मूल अधिकारों को सीमित करने संबंधी उठाया गया कोई भी कदम गैर-कानूनी और शून्य होगा
लेख पिछले अंश में हम पढ़ चुके हैं कि शंकरी प्रसाद एव सज्जन सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि संसद द्वारा पारित किया गया संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के अंतर्गत विधि की परिभाषा में नहीं आता है, अतः संसद मूल अधिकारों में संशोधन कर सकती है। उसके बाद गोलकनाय बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय को पलटते हुए कहा कि संविधान संशोधन अधिनियम भी अनुच्छेद 13 के अंतर्गत विधि के दायरे में आता है अतः संसद संविधान संशोधन के जरिए मूल अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है। इसके बाद संसद ने 24 वें एवं 25 वै संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 368 एवं अनुच्छेद 13 में संशोधन कर कुछ नए प्रावधान जोड़े। संसद ने व्यवस्था स्थापित की कि वह अनुच्छेद 368 के जरिए मूल अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है और संसद द्वारा पारित किया गया संविधान संशोधन अधिनियम अनुच्छेद 13 के अंतर्गत विधि की परिभाषा के दायरे मैं नहीं आएगा। साथ ही संसद ने यह प्रावधान किया कि कुछ नीति- निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों को सीमित किया जा सकता है और इस प्रकार के किसी कानून को अमान्य नहीं समझा जाएगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में ऐतिहासिक निर्णय देते संसद द्वारा पारित 24 वें संविधान संशोधन अधिनियम को संवैधानिक मान्यता प्रदान कर दी।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यद्यपि संसद मूल अधिकारों सहित इस संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है, किन्तु इससे संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यदि संसद द्वारा पारित कोई कानून या संविधान संशोधन अधिनियम संविधान की आधारभूत संरचना को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है या उसे नष्ट करता है, तो संसद द्वारा बनाया गया ऐसा प्रत्येक कानून शून्य होगा। संसद द्वारा 25 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से जोड़े गए अनुच्छेद 31 (c) को भी सुप्रीम कोर्ट ने विधिमान्य घोषित कर दिया, किन्तु इस अनुच्छेद के दूसरे भाग को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया। दरअसल, अनुच्छेद के दूसरे भाग में संसद ने व्यवस्था की थी कि अनुच्छेद 39 और मैं वर्णित नीति-निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए बनाई गई उस विधि को , जो अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 में वर्णित मूल अधिकारों को सीमित करती है, उसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
वस्तुतः संसद संविधान के माध्यम से ही यह व्यवस्था करना चाहती थी कि भूमि सुधारों के संबंध में उसके द्वारा पारित कानून को न्यायालय में चुनौती ही न दी जा सके । किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती के मामले में इस प्रावधान को समाप्त कर दिया, किन्तु पहले भाग की व्यवस्था को बने रहना दिया। पहले भाग की व्याख्या करते हुए न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 39 (b) और 39 (c) को लागू करने के लिए अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 को सीमित किया जा सकता है, उनका हनन या उल्लंघन नहीं अर्थात् सुप्रीम कोर्ट ने सीमित और हनन दोनों शब्दों में भेद कर दिया। पहले भाग की व्याख्या करते हुए न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 39 और को लागू करने के लिए अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 को सीमित किया जा सकता है, उनका हनन या उल्लंघन नहीं।
संविधान के आधारभूत ढाँचे के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय मुख्य न्यायाधीश ने संवैधानिक पीठ का निर्णय सुनाते हुए कहा कि- यद्यपि अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संसद की संविधान में संशोधन करने की शक्ति का दायरा व्यापक है किन्तु वह असीमित नहीं है। संसद ऐसा कोई संशोधन नहीं कर सकती, जिससे संविधान के मूल तत्व या उसका आधारभूत ढाँचा नष्ट हो जाए। संसद की इस शक्ति पर सीमायें निर्धारित है जो कि स्वयं संविधान में ही निहित हैं। संसद को इसी परिधि के भीतर अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करना है। यह परिधि क्या होगी, इसका निर्धारण 'संशोधन शब्द की व्याख्या पर निर्भर करेगा। अनुच्छेद 368 में प्रयुक्त शब्द संविधान का संशोधन के वास्तविक अर्थ को समझने के लिए हमें संविधान के संपूर्ण ढाँचे को देखना होगा। यदि संसद के जरिए संविधान के किसी ऐसे प्रावधान को सीमित या संशोधित करती है, जिससे संविधान की मूल भावना नष्ट होती है, तो वह असंवैधानिक होगा।
सरकार की ओर से इस पर तर्क दिया कि संविधान का प्रत्येक अनुच्छेद अत्यंत आवश्यक है, अन्यथा उसे संविधान में शामिल ही नहीं किया गया होता। इस पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि यह सही है कि संविधान को प्रत्येक प्रावधान आवश्यक है किन्तु प्रत्येक अनुच्छेद की स्थिति समान नहीं है। सही स्थिति यह है कि संविधान का प्रत्येक अनुच्छेद संशोधित किया जा सकता है बशर्ते कि इसके परिणामस्वरूप संविधान का मूल ढाँचा प्रभावित न हो। इस प्रकार सुप्रीम कोर्ट ने संसद की असीमित संविधायी शक्ति को मूल ढाँचे की संकल्पना के माध्यम से सीमित तथा सांविधानिक दायरे के भीतर ला दिया। संविधान का मूल ढाँचा संविधान का मूल ढाँचा क्या होगा, इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले में कोई स्पष्ट व्याख्या नहीं की।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायालय संसद द्वारा पारित अधिनियमों तथा न्यायालय के समक्ष आने वाले विभिन्न मामलों पर विचार करने के बाद तय करेगा कि संविधान के मूल ढाँचे में कौन कौन से प्रावधान शामिल होंगे ? किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के कुछ प्रावधानों को मूल ढाँचे के उदाहरणों के रूप में गिनाया -
- संविधान की सर्वोच्चता
- लोकतंत्र और गणतंत्रात्मक व्यवस्था
- संविधान का पंथ-निरपेक्ष स्वरूप
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का विभाजन
- संविधान का संघात्मक स्वरूप
केशवानंद भारती निर्णय के बाद की स्थिति
केशवानंद मारती मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संसद की संविधायी शक्तियों को संविधान के दायरे के भीतर ला दिया। इस विधायिका और न्यायपालिका के मध्य गतिरोध उत्पन्न हो गया, जहाँ एक ओर शासन व्यवस्था का एक अंग अपनी शक्तियों का दायरा कम नहीं होने देना चाहता था वही दूसरा अंग संविधान की सर्वोच्चता को स्थापित करने का प्रयास कर रहा था। केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय को प्रभाव को समाप्त करने के लिए संसद ने 42 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया। इस संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 368 मैं दो नए प्रावधान (4) और (5) जोड़े गए।
खंड (4) के तहत प्रावधान किया गया कि अनुच्छेद 368 के तहत अपनी संविधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए संसद द्वारा पारित किसी भी अधिनियम को देश के किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
खंड (5) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया कि संसद की संविधान संशोधन करने की शक्ति अर्थात संविधायी शक्ति किसी भी प्रकार की सीमाऑया बंधनों के अधीन नहीं है।
उपर्युक्त दोनों प्रावधानों को एक साथ पढने पर निष्कर्ष निकलता है-
- संसद इस संविधान में किसी भी प्रकार का संशोधन कर सकती है।
- संसद की संविधायी शक्ति पर किसी प्रकार की कोई सीमा या बंधन नहीं है।
- संसद द्वारा पारित किए गए किसी भी संविधान संशोधन अधिनियम को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
वस्तुतः 42 वाँ संविधान संशोध अधिनियम सुप्रीम कोर्ट द्वारा केशवानंद भारती मामले में दिए गए निर्णय से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने के लिए पारित किया गया था, जिसमें यह कहा गया था कि संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग संविधान के मूल ढाँचे को नष्ट करने के लिए नहीं कर सकती।
संविधान संशोधन समिति के तत्कालीन अध्यक सरदार स्वर्ण सिंह ने कहा कि 42 वें संविधान संशोधन - अधिनियम द्वारा तीन बातों को स्पष्ट कर दिया गया-
- संसद की संविधायी शक्ति सर्वोच्च है और उस पर किसी भी प्रकार का कोई निर्बन्धन या सीमा नहीं है।
- न्यायालय द्वारा प्रतिपादित आधारभूत ढांचे का सिद्धांत अस्पष्ट और दुविधा उत्पन्न करने वाला है।
- संसद सर्वोच्च है, न्यायपालिका नहीं क्योंकि संसद जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। इसके अलावा संसद ने एक और महत्वपूर्ण संशोधन अनुच्छेद 31 (c) में किया।
25 वें संविधान संशोधन अधिनियम के जरिए जोड़े गए 31 (c) में यह प्रावधान था कि संसद द्वारा अनुच्छेद 39 (b) और (c) मैं वर्णित नीति-निदेशक तत्वों का लागू करने के लिए बनाया गया कानून यदि अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 को सीमित करता है तो उसे शून्य घोषित नहीं किया जा सकता। किन्तु 42 वें संशोधन के जरिए संसद ने अनुच्छेद 319 (c) का दायरा बढा दिया और यह प्रावधान कर दिया कि अनुच्छेद 39 (b) और (c) ही नहीं बल्कि किसी भी नीति-निदेशकों तत्वों को लागू करने के लिए बनाई गए कानून को मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती न ही उस कानून को मूल अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर शून्य घोषित किया जा सकता है । इस प्रकार इस संशोधन अधिनियम द्वारा संसद ने स्पष्ट रूप से मूल अधिकारों पर नीति-निदेशक तत्वों की वरीयता सुनिश्चित कर दी। वस्तुतः 80 के दशक का वह दौर था जब केन्द्र में पूर्ण बहुमत एक शक्तिशाली सरकार सत्ता मे थी। यह सरकार न केवल संविधान सं -शोधन के संबंध में सर्वोच्च स्थिति प्राप्त करने का प्रयास कर रही थी, बल्कि राजनीतिक स्तर पर अपनी संप्रभुता कायम करना चाहती थी इस समय में सरकार और न्यायपालिका मैखुलकर टकराव सामने आने लगे।
सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के संबंध में सरकार ने वरिष्ठता के सिद्धांत का उल्लंघन करते हुए श्री अजीत नाथ रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर दिया। क्योंकि तीनों वरिष्ठ न्यायाधीशों ने केशवानंद भारत के मामले में सरकार के विपक्ष में निर्णय दिया था। इसके अलावा केन्द्र सरकार ने अनुचित आधारों पर 1975 में राष्ट्रीय आपातकाल को लागू कर दिया। साथ ही 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से कई अन्य संशोधन भी किए जो कि संवैधाकिन दृष्टिकोण से अनुचित तथा सत्ता प्राप्ति के संकीर्ण उद्देश्य से प्रेरित थे। उदाहरण के लिए 42 वै संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा लोकसभा के कार्यकाल को 5 वर्ष से बढाकर 6 वर्ष कर दिया। हालांकि बाद में 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा इन विवादास्पद संशोधनों का निरस्तर कर पुनः संविधान अनुकूल स्थिति प्राप्त करने का सफल प्रयास किया गया, जिनकी चर्चा हम आगे आने वाली लेखों में विस्तारपूर्वक करेंगे।
44 वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से सबसे विवादास्पद रहने वाले संपति के अधिकार को भाग तीन के अंतर्गत मूल अधिकारों की श्रेणी से हटाकर अनुच्छेद 300A में एक संवैधानिक अधिकार के रूप में स्थापित कर दिया गया।
42 वें संविधान संशोधन अधिनियम के बाद की स्थिति
मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ मामला (1980)
इसी बीच संसद ने 1974 मैं एक कपझ अधिनियम पारित करती है तथा मिनर्वा मिल्स कंपनी का अधिग्रहण कर उसका राष्ट्रीयकरण कर देती है। क्योंकि यह वही दौर था जब सरकार समाजवाद का अनुसरण करते हुए राष्ट्रीयकरण पर अधिक बल दे रही थी। मिनर्वा मिल्स एक निजी कपड़ा कम्पनी थी, जो कर्नाटक राज्य में स्थित थी। वर्तमान में भी यह कंपनी कार्य कर रही है।
1971 में भारत सरकार ने मिनर्वा मिल्स कंपनी का अधिग्रहण कर लिया तथा कंपनी को राष्ट्रीयकृत कर दिया। कंपनी केन्द्र सरकार के इस फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट चली गई। जब सुप्रीम कोर्ट में मामला चला तो केन्द्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम का हवाला दिया जिसके तहत अनुच्छेद 368 में दो प्रमुख प्रावधान जोड़े गए थे।
केन्द्र सरकार ने कहा कि संसद की शक्तियां असीमित हैं तथा उन्हें किसी भी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले में दिए संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा को आधार बनाकर कहा कि "संसद इस प्रकार का कोई संशोधन नहीं कर सकती जिससे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन होता हो।" चूंकि 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 368 में जोड़े गए प्रावधान सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक समीक्षा की शक्ति का उल्लंघन करते है। क्योंकि अनुच्छेद 368 (4) प्रावधान करता है कि अपनी संविधायी शक्तियों का प्रयोग करते हुए संसद द्वारा पारित किए गए किसी कानून को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। अतः इससे न्यायिक समीक्षा के सिद्धांत का उल्लंघन होता है। कोर्ट ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि संसद द्वारा अनुच्छेद 368 में किए गए संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करते हैं। सुप्रीम कोर्ट को संसद द्वारा बनाए गए कानूनों की समीक्षा करने का संवैधानिक अधिकार है।
अतः संसद इस प्रकार का कोई कानून बनाकर न तो खुद को संविधान से सर्वोच्च बना सकती है और न ही सुप्रीम कोर्ट को उसकी शक्तियों और कर्तव्यों से हटा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 368 में जोड़े गए नए प्रावधान (4) और (5) संसद को असीमित संविधायी शक्ति प्रदान करते हैं, जोकि असंवैधानिक है और इससे संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन होता है।
इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने मिनर्वा मिल्स के पक्ष में फैसला सुनाया तथा अनुच्छेद 368 में जोड़े गए और दोनों नए प्रावधानों को शून्य घोषित कर दिया गया। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि न्यायिक समीक्षा संविधान के मूल ढांचे का अंग है और संसद संशोधन द्वारा न्यायालय की इस शक्ति को नहीं छीन सकती। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि भारत में संसद नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है। शासन व्यवस्था के तीनों अंग अपनी शक्तियाँ संविधान से प्राप्त करते हैं और उन्हें संविधान की मूल भावना के अनुरूप ही अपनी शक्तियों का प्रयोग करना होगा।
न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) क्या है?
विधायिका एवं कार्यपालिका द्वारा पारित कानून एवं किए गए कायों की संवैधानिकता और वैधता का न्यायपालिका द्वारा परीक्षण करना न्यायिक समीक्षा कहलाता है। यदि न्यायपालिका पाती है कि संसद द्वारा पारित कानून अथवा राज्य द्वारा किया गया कोई कृत्य संविधान के प्रावधानों का उल्लंघन करता है तो न्यायालय उसे शून्य घोषित कर देता है। इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 31 (c) में किए गए संशोधन को भी असंवैधानिक घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने किया किया मूल अधिकार और नीति- निदेशक दोनों का अपना-अपना महत्व है। दोनों एक ही गाड़ी के दो पहिए है, जिनमें एक को कम तथा दूसरे को कम नहीं आंका जा सकता। तथापि मूल अधिकारों का महत्व इसलिए अधिक है कि ये व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए संविधान द्वारा प्रदत आधारभूत अधिकार हैं। अतः नीति-निदेशक तत्वों को लागू करने के लिए मूल अधिकारों को सीमित या संशोधित नहीं किया जा सकता।
मिनर्वा मिल्स मामले के बाद स्थिति
लेख में हम पहले ही पढ़ चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने मिनर्वा मिल्स के मामले में न्यायिक समीक्षा को संविधान के मूल ढाँचे का अंग मानते हुए संसद द्वारा 42 वें संशोधन अधिनियम के जरिए अनुच्छेद 368 में किए गए संशोधन को असंवैधानिक घोषित कर दिया। संसद ने अनुच्छेद 368 में संशोधन करते हुए प्रावधान किया था कि संसद द्वारा पारित किसी संविधान संशोधन अधिनियम को न्यायालय में किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती। नौंवी अनुसूची के संबंध में व्यवस्था संविधान में संशोधन के संबंध में अब संसद की शक्तियों के संबंध में स्थिति स्पष्ट थी। किन्तु पहले संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई नवीं अनुसूची के संबंध में भी अभी स्थिति स्पष्ट नहीं थी। दरअसल, नौंवी अनुसूची के माध्यम से यह व्यवस्था की गई थी कि इस अनुसूची में शामिल किसी भी कानून या संविधान संशोधन अधिनियम को किसी न्यायालय में कोई चुनौती नहीं दी जा सकती वस्तुतः यह व्यवस्था भूमि-सुधारों कानूनों को लागू करने तया उससे उत्पन्न संपत्ति के अधिकार के हनन के मामलों से निपटने के लिए की गई थी प्रारंभ में इस अनुसूची में मुख्यतः उन्हीं कानूनों को शामिल किया जाता था जो भूमि के अधिग्रहण तथा भू-सुधारों से संबंधित होते थे। किन्तु धीरे-धीरे संसद तथा कई राज्य विधानमंडलों ने कुछ अन्य अधिनियमों को भी इस अनुसूची में शामिल करना प्रारंभ कर दिया।
इसी प्रकार का एक कानून केरल राज्य विधानमंडल द्वारा आरक्षण के संबंध में पारित किया गया, जिसमें आरक्षण की निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघ -न होता था। इस कानून को वामन राव नामक व्यक्ति द्वारा सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। इस मामले में न्यायालय ने संसद द्वारा आरक्षण के संबंध में पारित विभिन्न अधिनियमों को भी संज्ञान में लिया। इस मामले को वामनराव बनाम भारत संघ (1981) के मामले के नाम से जाना जाता है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय सुनाते हुए संविधान के मूल ढाँचे की अवधारणा का विस्तार नौंवी अनुसूची तक भी कर दिया।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संसद अथवा किसी राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किसी ऐसे कानून को जो संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन करता हो, किसी भी आधार पर संरक्षण नहीं दिया जा सकता। यद्यपि संसद ने नौवी अनुसूची का निर्माण भूमि-सुधार कानूनों को कुशलता से लागू करने के लिए किया था, सरकार की इस मंशा पर कोई संदेह नहीं है। किन्तु अब परिस्थितियाँ काफी सीमा तक बदल चुकी हैं, साथ ही संसद सहित राज्य विधानमंडलों द्वारा इस अनुसूची का सहारा अपने असंवैधानिक कानूनों को संरक्षण प्रदान करने के लिए भी किया जा रहा है, जोकि अनुचित है।
अंतिम निर्णय सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 24 अप्रैल, 1973 से पूर्व नौंवी अनुसूची में शामिल कानूनों की न्यायालय समीक्षा नहीं करेगा। किन्तु इस 24 अप्रैल 1973 के बाद इस अनुसूची में शामिल प्रत्येक कानून की न्यायालय द्वारा समीक्षा की जा सकती है। यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि कोई कानून या संविधान संशोधन अधिनियम संविधान के मूल ढाँचे को नष्ट करता है तो न्यायालय उस कानून को शून्य घोषित कर सकता है, भले ही वह कानून या संविधान संशोधन अधिनियम नाँवी अनुसूची में ही क्याँ न शामिल हो।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय का विश्लेषण
सुप्रीम कोर्ट ने नाँवी अनुसूची के संबंध में अपना यह निर्णय 1981 में दिया था, किन्तु अपने इस निर्णय को भूतलक्षी प्रभाव के द्वारा 24 अप्रैल, 1973 से लागू किया। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष विकल्प था कि अपने इस निर्णय को 1981 से ही लागू कर सकती थी और यदि भूतलक्षी प्रभाव से अपने निर्णय को लागू करना था जो संविधान के लागू होने के बाद से ही कर सकती थी। किन्तु सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती मामले के निर्णय की तिथि को ही चुना? इसके पीछे कई तर्क हैं-
- प्रारंभ में जो अधिनियम नाँवी अनुसूची में शामिल किए गए थे, वे वास्तव में भूमि-सुधारों को लागू करने के लोक-कल्याणकारी दृष्टिकोण से प्रेरित थे। अतः यदि सुप्रीम कोर्ट नौंवी अनुसूची में शामिल सभी अधिनियमों पर 'संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धांत को लागू कर देती तो इससे जटिलतायें उत्पन्न हो सकती थी। इससे भूमिपतियों द्वारा संसद एवं राज्य विधानमंडलों के प्रत्येक भूमि सुधार कानूनों को न्यायालय में चुनौती दी जाने लगती। इससे न्यायालय में मुकदमों को बोझ भी बढता और भूमि-सुधार संबंधी सरकारों द्वार किए गए प्रयास भी विफल हो जाते।
- प्रारंभ में विधायिका द्वारा जिन कानूनों को नौवी अनुसूची में शामिल किया गया था, उनकी प्रकृति संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करने वाली नहीं थी और न ही किसी कानून के माध्यम से संसद ने स्वयं को सर्वोच्च स्थापित करने की चेष्टा की थी।
- सुप्रीम कोर्ट द्वारा मूल ढाँचे की संकल्पना का प्रतिपादन केशवानंद भारती के मामले में किया था। इससे पहले संसद के समक्ष इस प्रकार की कोई व्यवस्था या आदर्श उपस्थित नहीं था।
किन्तु केशवानंद भारती के निर्णय के बाद संसद के समक्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा मूल ढाँचे की व्यवस्था मौजूद थी, जिसका संसद द्वारा पालन किया जाना आवश्यक एवं वांछनीय था। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने नौंवी अनुसूची के संबंध में मूल ढाँचे की संकल्पना को 24 अप्रैल 1973 से लागू किया। इसके बाद पुनः आई. आर. सेलो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) के मामले में संविधान की 9 अनुसूची में विभिन्न अधिनियमों की संवैधानिकता को चुनौती दी गई। याचिकाकर्ता ने कहा कि 24 अप्रैल 1973 से पहले संविधान की नौंवी अनुसूची में शामिल कानूनों को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर रखना संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन है।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि नौवी अनुसूची में शामिल प्रारंभिक अधिनियमों का मुख्य उद्देश्य केन्द्र और राज्यों द्वारा पारित भूमि सुधार कानूनों को न्यायालय में चुनौती दिए जाने दिए जाने से रोकना था। किन्तु बाद में इसमें कई ऐसे कानूनों को जोड़ा गया जिनका संबंध भूमि सुधारों से न होकर नागरिकों के मूल अधिकारों का हनन करना था।
वर्तमान स्थिति
वामन राव मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय के अनुरूप नाँवी अनुसूची के संबंध में वर्तमान स्थिति यह है कि संसद अथवा किसी राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानून, जोकि नाँवी अनुसूची में शामिल है, को संविधान के मूल ढाँचे के उल्लंघन के आधार पर न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। किन्तु संसद अथवा राज्य विधानमंडल द्वारा ऐसा कानून 24 अप्रैल, 1973 के बाद पारित हुआ होना चाहिए। यदि इस तिथि से पहले कोई संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा पारित और नौंवी अनुसूची में शामिल कानून को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती और न ही न्यायालय द्वारा उसे शून्य घोषित किया जा सकता है।
मूल ढाँचे में क्या-क्या शामिल है?
सुप्रीम कोर्ट ने अपने विभिन्न निर्णयों द्वारा संविधान के मूल ढाँचे की परिधि को निर्धारित किया है जिनमें से कुछ विषय निम्नलिखित है-
- संविधान की सर्वोच्चता
- विधि का शासन
- शक्तियों का विभाजन
- न्यायिक समीक्षा
- संसदीय शासन प्रणाली पंथनिरपेक्षता
- वयस्क मताधिकार
- संप्रभुता
- भारत की संघीय व्यवस्था
- न्यायालय की स्वतंत्रता
मूल ढाँचे के संबंध में समसामयिक घटनाक्रम
99 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2014 द्वारा संसद ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया। इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 124 (2) में संशोधन किया गया। दरअसल, अनुच्छेद 124 (2) सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। इस अनुच्छेद के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश के अलावा सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी किन्तु नियुक्ति करने से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लिया जाएगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में व्यवस्था देते हुए कहा कि मुख्य न्यायाधीश से परामर्श का तात्पर्य मुख्य न्यायाधीश सहित चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से है। यह कोलेजियम बहुमत से निर्णय देगा, जिसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा। 99 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संसद ने मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति के आयोग से परामर्श को जोड़ दिया। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए इस संशोधन अधिनियम को संविधान के मूल ढाँचे के उल्लंघन के आधार शून्य घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संसद द्वारा पारित इस प्रकार का अधिनियम न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित करता है तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका के अनावश्यक हस्तक्षेप को बढावा देने वाला है। इससे शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत का भी उल्लंघन होता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती के मामले में संविधान के मूल ढाँचे का अंग घोषित किया था।
महत्वपूर्ण संशोधन
प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान में नौंवी अनुसूची को जोड़ा गया। इसके अलावा इस संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 15 मैं खंड 4 को जोड़ा गया। अनुच्छेद 15 (4) के अनुसार राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान कर सकता है।
तीसरे संविधान संशोधन अधिनियम, 1954 के द्वारा आवश्यक खाद्य पदार्थों को राज्य सूची से निकालकर संघ सूची में शामिल कर दिया गया। दरअसल, आवश्यक खाद्य-पदार्थों के पूर्ण नियंत्रण का अधिकार राज्य सरकारों को था। इससे आपातकालीन स्थिति में बड़ी जटिलता उत्पन्न हो रही थी। दूसरी तरफ इस समय देश खाद्य सुरक्षा के संकट से भी जा रहा था। अतः केन्द्रीय सरकार को सभी प्रकार के आवश्यक पदार्थों के उत्पादन, आपूर्ति और वितरण पर पूर्ण नियंत्रण की शक्ति प्रदान कर दी गई। पाँचवे संविधान संशोधन अधिनियम, 1955 द्वारा अनुच्छेद 3 में संशोधन किया गया। मूल रूप से अनुच्छेद 3 के अधीन राज्य-पुनर्गठन से संबंधित विधेयक को राज्यों को भेजकर उनका मत प्राप्त करने की व्यवस्था थी। किन्तु इसके लिए कोई निश्चित समय-सीमा निर्धारित नहीं थी, जिससे दुविधा उत्पन्न हो रही थी, क्योंकि राज्य विधेयक को अनिश्चित काल के लिए अपने पास रोककर रख लेते थे। अतः इस संशोधन अधिनियम द्वारा व्यवस्था कर दी गई कि राष्ट्रपति विधेयक को जब राज्य विधानमंडल का मत जानने के लिए भेजेगा तो उसमें समय-सीमा का निर्धारण भी उल्लिखित । यदि राज्य उस तय समय-सीमा के भीतर अपना मत नहीं देता है तो उस विधेयक को राज्य विधानमंडल द्वारा स्वतः पारित किया हुआ मान लिया जाएगा।
सातवाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1955
राज्यों के पुनर्गठन से संबंधित था, इस Act द्वारा यह व्यवस्था की गई कि दो या दो से अधिक राज्यों के लिए एक ही उच्च न्यायालय की व्यवस्था की जा सकती है।
11 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1960
इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 71 में संशोधन कर यह व्यवस्था की गई कि राष्ट्रपति के निर्वाचन को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उसका निर्वाचक मंडल पूरा नहीं है। उदाहरण के लिए, राष्ट्रपति के निर्वाचन के समय राजस्थान की विधानसभा विघटित थी, अतः राजस्थान विधानसभा सदस्यों ने राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नहीं लिया। राष्ट्रपति का निर्वाचन पूरा होने के बाद कुछ समय के भीतर राजस्थान विधानसभा का पुनर्गठन हो गया। किन्तु अब राजस्थान विधानसभा का कोई सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचनको इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती कि राष्ट्रपति का निर्वाचक मंडल पूरा नहीं था।
15 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1963
इस अधिनियम द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की रिटायरमेंट की आयु को 60 वर्ष से बढाकर 62 वर्ष कर दिया गया। साथ ही यह व्यवस्था भी की गई कि किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उसके कार्यकाल के दौरान दूसरे उच्च न्यायालय में भी स्थानांतरण किया जा सकता है। इस अधिनियम द्वारा उच्च न्यायालय की रिट जारी करने की शक्ति का दायरा बढ़ा दिया गया। अब उच्च न्यायालय किसी सरकारी अधिकारी या व्यक्ति के विरुद्ध रिट जारी कर सकता है जोकि उसके राज्यक्षेत्र के अंतर्गत न आता हो।
17 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1964
इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 31 क और नवीं अनुसूची में संशोधन किया गया। वस्तुतः इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य केरल और मद्रास राज्यों द्वारा पारित भूमि सुधार कानूनों को संवैधानिक संरक्षण प्रदान करना था, ताकि उन्हें न्यायालय में चुनौती नदी जा सके। इस संशोधन अधिनियम के बारे में हम विस्तार से पहले ही पढ़ चुके हैं।
18 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1966
इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 3 में संशोधन किया गया। अनुच्छेद 3 का संबंध राज्यों के पुनर्गठन से है। यह प्रावधान किया गया कि संसद राज्यों ही नहीं बल्कि केन्द्रशासित प्रदेशों का भी पुनर्गठन कर सकती है।
19 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1966
मूल संविधान में संसद और राज्य विधानमंडलों के चुनावों के संबंध में होने वाले विवादों का निपटारा करने की शक्ति भारतीय चुनाव आयोग को प्रदान की गई थी। किन्तु इस संविधान संशोधन द्वारा यह शक्ति भारतीय चुनाव आयोग से लेकर उच्च न्यायालयों को प्रदान कर दी गई। वस्तुतः इस समय भारतीय निर्वाचन आयोग की कार्यप्रणाली में कार्यपालिका का हस्तक्षेप बढ रहा था। इसी स्थिति से निपटने के लिए उच्च न्यायालयों को सांसद और विधायकों के चुनावों संबंधी विवादों का निपटारा करने की शक्ति दे दी गई।
29 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1972
इस अधिनियम द्वारा कुछ भूमि सुधार संबंधी कानूनों को नवीं अनुसूची में जोड़ दिया गया। इससे स्पष्ट होता है कि संसद न्यायिक समीक्षा से बचने के लिए निरंतर नवीं अनुसूची का दायरा बढाता जा रही था।
33 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1974
इस संशोधन अधिनियम द्वारा यह प्रावधान किया गया कि संसद और राज्य विधानमंडलों के अध्यक्ष/स्पीकर किसी विधायक अथवा सांसद का त्यागपत्र तमी स्वीकार करेंगे, जब उन्हें इस बात का समाधान हो जाए कि सदस्य द्वारा त्यागपत्र स्वैच्छा से दिया गया है न कि किसी के दबाव में आकर।
38 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1975
इस संविधान द्वारा अनुच्छेद 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा की गई आपातकाल की घोषणा को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया। इसके अलावा अनुच्छेद 123 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए अध्यादेश को न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर कर दिया गया। राज्यपाल द्वारा अनुच्छेद 213 के अंतर्गत जारी किए जाने वाले अध्यादेश के संबंध में मी उपर्युक्त व्यवस्था लागू कर दी गई । इसके बारे में हम आगे की लेखों में विस्तार से पढ़ेंगे। वस्तुतः यह आपातकाल का दौर था, जिसमें केन्द्र सरकार अपने बहुमत का इस्तेमाल करते हुए अपनी सता को स्थापित बनाए रखने का प्रयास कर रही थी।
39 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1975
इस संशोधन अधिनियम द्वारा राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और लोकसमा अध्यक्ष के निर्वाचन संबंधी विवादों को सुप्रीम कोर्ट की अधिकारिता से बाहर कर दिया गया। ऐसे विवादों की सुनवाई संसद की विधि द्वारा स्थापित एक समिति द्वारा किए जाने का प्रावधान किया गया।
42 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976
इस अधिनियम द्वारा संविधान में अनेक महत्त्वपूर्ण संशोधन किए गए। ये संशोधन मुख्यतः स्वर्णसिंह आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए थे। यह संविधान का सबसे महत्त्वपूर्ण संशोधन माना जाता है। इसे लघु संविधान के रूप में जाना जाता है। कुछ महत्वपूर्ण संशोधन समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्र की अखंडता के उच्चादों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने, नीति निर्देशक सिद्धांतों को अधिक व्यापक बनाने और उन्हें उन मूल अधिकारों, जिनकी आड लेकर सामाजिक-आर्थिक सुधारों को निष्फल बनाया जाता रहा है पर वरीयता देने के उद्देश्य से किए गए।
इसके तहत संविधान में एक नए मागा V को जोड़ा गया। संविधान के इस नए भाग में अनुच्छेद 51 क ओझा गया जिसमें 10 मौलिक कर्तव्यों को रखा गया था। कानूनों की संवैधानिक वैधता से संबंधित प्रश्नों पर निर्णय लेने के लिए न्यायाधीशों की न्यूनतम संख्या निर्धारित करने तथा किसी कानून को संवैधानिक दृष्टि से अवैध घोषित करने के लिए कम से कम दो तिहाई न्यायाधीशों की विशेष बहुमत व्यवस्था करके न्यायपालिका संबंधी उपबंधों कामी संशोधन किया गया। उच्च न्यायालयों में अनिर्णित मामलों की बढ़ती हुई संख्या को कम करने के लिए और सेवा, राजस्व, सामाजिक-आर्थिक विकास और प्रगति के संदर्भ में कतिपय अन्य मामलों के शीघ्र निपटारे को सुनिश्चित करने के लिए इस संशोधनकारी अधिनियम द्वारा संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन ऐसे मामलों में उच्चतम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र को सुरक्षित रखते हुए प्रशासनिक और अन्य न्यायाधिकरणों के गठन के लिए उपबंध किया गया।
शिक्षा, वन, वन्यजीवों एवं पक्षियों का संरक्षण, नाप- तौल और न्याय प्रशासन तथा उच्चतम और उच्च न्यायालय के अलावा समौन्यायालयों के गठन और संगठन के विषयों को राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किया गया। राष्ट्रपति को कैबिनेट की सलाह की लिये बाध्यता का उपबंध शामिल किया गया। इस संशोधन के तहत भारतीय संविधान में तीन नए शब्द समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता जोड़े गए।
44 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1978
संपति के अधिकार को, जिसके कारण संविधान में कई संशोधन करने पड़े, मूल अधिकार के रूप में हटाकर केवल विधिक अधिकार बना दिया गया। (Article 300A) यह सुनिश्चित किया गया कि संपत्ति के अधिकार को मूल अधिकारों की सूची से हटाने से अल्पसंख्यकों के अपनी पसंद के शिक्षा संस्थानों की स्थापना करने और संचालन संबंधी अधिकारों पर कोई प्रभाव न पड़े । संविधान के अनुच्छेद 352 का संशोधन करके यह उपबंध किया गया कि आपात स्थिति की घोषणा के लिए एक कारण सशस्त्र विद्रोह होगा। 44 वें संविधान संशोधन के पूर्व राज्य में राष्ट्रपति शासन की अधिकतम अवधि 3 वर्ष थी, लेकिन अब इस व्यवस्था में यह परिवर्तन किया गया है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन के एक वर्ष की अवधि के बाद इसे और अधिक समय के लिए जारी रखने का प्रस्ताव संसद द्वारा तभी पारित किया जा सकेगा।
जब अनुच्छेद 352 के अंतर्गत संकटकाल लागू हो + चुनाव आयोग यह प्रमाणित कर दे कि वर्तमान समय में राज्य में चुनाव करवाना संभव नहीं है किसी परिस्थिति में तीन वर्ष के बाद राष्ट्रपति शासन लागू नहीं रखा जा सकेगा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को जैसा कि अनुष्छेद 21 और 22 में दिया गया है। इस उपबंध द्वारा और अधिक शक्तिशाली बनाया गया है। इसके अनुसार निवारक नजरबंदी नहीं रखा जा सकता, जब तक कि सलाहकार बोर्ड यह रिपोर्ट नहीं देता कि ऐसी नजरबंदी के पर्याप्त कारण हैं। इसके लिए अतिरिक्त संरक्षण की व्यवस्था इस अपेक्षा से की गई कि सलाहकार बोर्ड का अध्यक्ष किसी समुचित उच्च न्यायालय का सेवारत न्यायाधीश होगा और बोर्ड का गठन उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशों के अनुसार किया जाएगा। संपति के अधिकार को, जिसके कारण संविधान में कई संशोधन करने पड़े, मूल अधिकार के रूप से हटाकर केवल विधिक अधिकार बना दिया गया।
49 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1984
इस अधिनियम द्वारा छठी अनुसूची में त्रिपुरा राज्य को भी शामिल कर दिया। छठी अनुसूची का संबंध जनजाति अर्थात् आदिवासी क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है। इस संशोधन अधिनियम द्वारा छठी अनुसूची के दायरे में अब चार राज्य हो गए- असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम । वर्तमान में भी यही चार राज्य छठी अनुसूची के अंतर्गत शामिल हैं।
52 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1985
इस संविधान संशोधन के जरिए भारतीय संविधान में दसवीं अनुसूची को जोड़ा गया, जोकि दल-बदल के प्रावधानों से संबंधित है।
61 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1989
इस अधिनियम के द्वारा अनुच्छेद 326 में संशोधन करते हुए मतदान की आयु को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष कर दिया गया। मूल संविधान में 21 वर्ष की आयु इसलिए रखी गई थी, क्योंकि भारत उस समय नया स्वतंत्र हुआ लोकतांत्रिक देश था, जिसके नागरिकों को निर्वाचन प्रणाली के संबंध में अधिक जानकारी नहीं थी। इसके अलावा स्तर भी बहुत ही था। साथ ही भारत के पास संसाधनों का अभाव था कि वो इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए मतदान की व्यवस्था कर सके। संविधान निर्माता भारतीय निर्वाचन आयोग पर मी अनावश्यक दबाव नहीं बढाना चाहते थे। किन्तु 90 के दशक तक आते-आते परिस्थितियों काफी बदल चुकी थी, इसलिए मतदान की आयु को संशोधित कर 18 वर्ष कर दिया।
65 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1990
इस संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 338 में संशोधन कर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन किया गया। मूल संविधान में इन जातियों और जनजातियों के लिए विशेष अधिकारी का प्रावधान था, जिसे अब आयोग से प्रतिस्थापित कर दिया गया।
69 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1990
इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 239AA और अनुच्छेद 239AB जोड़कर दिल्ली को केन्द्रशासित प्रदेश का विशेष दर्जा दिया गया। साथ ही दिल्ली के लिए विधानसमा और मंत्रिपरिषद का भी गठन किया गया।
73 वाँ एवं 74 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1992
इन दोनों संशोधनों के द्वारा स्थानीय शासन की इकाईयों के गठन का प्रावधान किया गया। इस संबंध में ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 11 वीं अनुसूची तथा शहरी क्षेत्रों के लिए 12 वीं अनुसूची संविधान में जोड़ी गई।
77 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1995
इस संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 16 में खंड 4 (क) जोड़ा गया। इसके अनुसार राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए पदोन्नति में भी आरक्षण देने के लिए सशक्त किया गया।
86 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2002
इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21A को जोड़कर प्रारंभिक शिक्षा को मूल अधिकार घोषित कर दिया गया। साथ ही भाग-4 के अनुच्छेद 45 को संशोधित कर प्रावधान किया गया कि राज्य छः से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों के लिए देखभाल और प्रारंभिक शिक्षा की व्यवस्था करेगा।
89 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003
इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 338 क को जोड़कर अनुसूचित जनजातियों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। इससे पहले अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए एक ही आयोग का प्रावधान था, जिसे अब दोनों के लिए अलग-अलग दिया गया।
91 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2003
इस संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गई कि मंत्रिपरिषद का आकार प्रधानमंत्री सहित लोकसभा की कुल सदस्य संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। राज्यों के संबंध में भी यही व्यवस्था लागू की गई। राज्यों के संबंध में मंत्रिपरिषद की सदस्य संख्या मुख्यमंत्री सहित न्यूनतम 15% निर्धारित की गई। इसके अलावा इस संशोधन द्वारा यह भी प्रावधान किया गया कि यदि कोई सांसद या विधायक दल- बदल के आधार पर अपनी विधायिका की सदस्यता खो देता है तो वह मंत्री पद धारण करने के लिए भी अयोग्य होगा।
97 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2011
इस संशोधन अधिनियम द्वारा सहकारी समितियों के गठन को अनुच्छेद 19 के तहत मूल अधिकार घोषित कर दिया गया। साथ ही भाग 4 में एक नया निदेशक तत्व अनुच्छेद 43 खा के रूप में जोड़ा गया, जिसमें कहा गया कि राज्य सहकारी समितियों के गठन तथा उनके विकास के लिए प्रयास करेगा।
99 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2014
संसद ने सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के गठन का प्रावधान किया। इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 124 (2) मैं संशोधन किया गया। दरअसल, अनुच्छेद 124 (2) सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। इस अनुच्छेद के अनुसार, मुख्य न्यायाधीश के अलावा सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी किन्तु नियुक्ति करने से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श लिया जाएगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय मै व्यवस्था देते हुए कहा कि मुख्य न्यायाधीश से परामर्श का तात्पर्य मुख्य न्यायाधीश सहित चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के परामर्श से है। यह कोलेजियम बहुमत से निर्णय देगा, जिसे मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा।
99 वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संसद ने मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के स्थान पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति के आयोग से परामर्श को जोड़ दिया। इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए इस संशोधन अधिनियम को संविधान के मूल ढाँचे के उल्लंघन के आधार शून्य घोषित कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि संसद द्वारा पारित इस प्रकार का अधिनियम न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित करता है तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका के अनावश्यक हस्तक्षेप को बढावा देने वाला है। इससे शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत का भी उल्लंघन होता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती के मामले में संविधान के मूल ढाँचे का अंग घोषित किया था।
100 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2015
भारत बांग्लादेश के बीच भूमि सीमा समझौते (एलबीए-सैंड बाउंड्री एग्रीमेंट) से संबंधित है इसके तहत संविधान की पहली अनुसूची में संशोधन किया जायेगा इस निर्णय के बाद बांग्लादेश को भारत से 111 परिक्षेत्र मिलेंगे (17160 एकड़) जबकि भारत को बांग्लादेश से 51 परिक्षेत्र (7110 एकड़) क्षेत्र प्राप्त हुआ असम में भारत को 470 एकड़ भूमि बांग्लादेश से प्राप्त होगी जबकि 268 एकड़ बांग्लादेश को दिया गया परिक्षेत्र प्रत्येक देश के एक छोटे भूभाग को कहते हैं जो दूसरे देश के अधिकार क्षेत्र में घिरा होता है इस संशोधन अधिनियम में असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा तथा मेघालय में मौजूद परिक्षेत्र शामिल हैं।
101 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2016
वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम सभी प्रकार के अप्रत्यक्ष करों को समाप्त कर उनकी जगह ही टैक्स को लागू करने का प्रावधान करता है। वस्तुतः यह एक देश एक कर की अवधारणा से प्रेरित अधिनियम है। GST एक अप्रत्यक्ष कर है जिसे भारत को एकीकृत साझा बाजार बनाने के उद्देश्य से लागू किया गया है। यह निर्माता से लेकर उपमोक्ताओं तक वस्तुओं एवं सेवाओं की आपूर्ति पर लगने वाला एकल कर है। सीजीएसटी की वसूली केंद्र राज्य की सीमा के अंदर वस्तुओं एवं सेवाओं की सप्लाई पर सीजीएसटी की वसूली करेगा। सप्लाई में बिक्री हस्तांतरण और व्यवसाय को विस्तार देने के लिए तैयार की गई लीज शामिल है। टैक्स की दरें सीजीएसटी की टैक्स की दरों को जीएसटी परिषद के सुझावों के आधार पर निर्धारित किया जाएगा। यह दर 20% से अधिक नहीं होनी चाहिए। सीजीएसटी से छूट केंद्र एक अधिसूचना जारी करके कुछ वस्तुओं और सेवाओं को जीएसटी के दायरे से बाहर रख सकता है। जीएसटी परिषद के सुझाव के आधार पर इस प्रकार की छूट दी जाएगी। सीजीएसटी ऐसी वस्तुओं और सेवाओं की सप्लाई पर वसूली जाएगी जिनकी कीमत में निम्नलिखित शामिल हैं-
- सप्लाई पर चुकाई जाने वाली कीमत
- दूसरे टैक्स कानूनों के तहत वसूले जाने वाले टैक्स और ड्यूटी
- ब्याज, लेट फी, देर से किए गए भुगतानों पर जुर्माना, इत्यादि।
इनपुट टैक्स क्रेडिट प्रत्येक टैक्सपेयर आउटपुट पर - टैक्स चुकाते समय इनपुट पर चुकाए गए टैक्स के बराबर क्रेडिट ले सकता है। वस्तु एवं सेवा कर अपीलीय अधिकरण वस्तु एवं सेवा कर अपीलीय अधिकरण, GST कानूनों में दूसरी अपील करने के लिये एक मंच है और केंद्र एवं राज्यों के बीच विवाद समाधान का प्रथम सार्वजनिक मंच है। केंद्र और राज्य , वस्तु एवं सेवा कर अधिनियम के अंतर्गत अपीलीय प्राधिकरणों (Appellate Authorities) द्वारा जारी प्रथम अपीलों में दिये गए आदेशों के विरुद्ध अपील, GST अपीलीय अधिकरण के समक्ष दाखिल होती है जो कि केंद्र तथा राज्य GST अधिनियाँ (State GST Acts) के अंतर्गत एक है। GST परिषद संविधान में नया अनुच्छेद 279A जोड़कर GST परिषद के गठन का प्रावधान किया गया। इसके तहत 12 सितंबर, 2016 को GST परिषद के गठन की अधिसूचना जारी की गई थी। इस परिषद का अध्यक्ष केंद्रीय वित मंत्री होता है तथा केंद्रीय राज्य मंत्री (वित राजस्व के प्रभारी) एवं राज्यों के वित या कर मंत्री या वे जिन्हें नामित राज्य शामिल करें. सदस्य के रूप में शामिल होते हैं। यह परिषद संघ/राज्य/क्षेत्रीय निकाय द्वारा लगाए जाने वाले करों, उपकरों तथा अधिभारों के GST में सम्मिलन या छूट के संदर्भ में सिफारिशें देती है। यह परिषद GST से संबंधित मानकों का निर्धारण करती है।
102 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2018
इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 3388 के तहत राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया गया है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग में एक अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और तीन अन्य सदस्य होंगे अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और अन्य सदस्यों की सेवा सत एवं पदावधिवही होगी जो राष्ट्रपति तय करेंगे राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को अपनी स्वयं की प्रक्रिया विनियमित करने की शक्ति होगी। आयोग को संविधान के अधीन सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए उपबंधित सुरक्षा उपाय से संबंधी मामलों की जांच और निगरानी करने का अधिकार भी होगा राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग पिछड़े वर्गों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास में भाग लेगा साथ ही उन्हें सलाह भी देगा।
103 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2019
यह संशोधन अधिनियम आर्थिक आधार पर पिछड़े सामान्य वर्ग के नागरिकों के लिए 10 प्रतिशत के आरक्षण का प्रावधान करता है। आरक्षण देने का उद्देश्य केंद्र और राज्य में शिक्षा के क्षेत्र, सरकारी नौकरियों, चुनाव और कल्याणकारी योजनाओं में हर वर्ग की हिस्सेदारी सुनिश्चित करना है। किसको माना गया है आर्थिक रूप से पिछड़ा? -
- परिवार की आय आठ लाख रुपए सालाना से कम यह OBC आरक्षण में लागू क्रीमीलेयर की सीमा है।
- जिनकी कृषि योग्य भूमि पाँच एकड़ से कम हो।
- आवासीय घर एक हजार वर्ग फीट से कम हो।
104 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2020
इस संशोधन के अंतर्गत, अनुसूचित जाति एवं जनजाति (एससी और एसटी) के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में आरक्षण की अवधि को 10 वर्ष के लिए और बढ़ा दिया गया. साथ ही, इस संशोधन ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन समुदाय के लिए आरक्षित सीटों को भी समाप्त कर दिया।
105 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2021
यह संशोधन सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों (SEBC) की पहचान करने और उन्हें निर्दिष्ट करने के लिए राज्य सरकारों की शक्ति को पुनर्स्थापित करता है।
106 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 2023
106 वें संविधान संशोधन अधिनियम के अंतर्गत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने का प्रावधान है। इसके प्रावधान के अनुसार, "यह उस तारीख से लागू होगा जो केंद्र सरकार आधिकारिक राजपत्र में अधिसूचना द्वारा निर्धारित करेगी।" इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए कोटा 15 वर्ष तक जारी रहेगा और संसद बाद में लाभ की अवधि बढ़ा सकती है। जबकि यह आरक्षण, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कोटा के साथ मिलकर, स्थानीय निकाय में कुल सीटों के 50% से अधिक नहीं हो सकता है।